मेरी बात
मेरा जन्म ग्रामीण परिवेश में हुआ,मेरा प्रारम्भिक बचपन वहीं बीता,जब थोड़ा बड़ा हुआ, तो मेरे पिता ने मुझे दिल्ली बुला लिया, तथा मेरा प्रवेश एक प्राथमिक विध्यालय में करा दिया।.मेरे पिताजी एक साधारण सरकारी नौकर थे,आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी,किन्तु एक तो बचपन,दुसरे ग्रमीण परिवेश का जीवन यापन,तीसरे दिल्ली जैसे महानगर में आगमन,बैलगाड़ी से रेलगाड़ी, मोटरगाड़ी, चूल्हे से अंगीठी, दीये से बिजली का बल्ब, हाथ के पंखे से बिजली का पंखा, वेशभूषा में भी परिवर्तन,पाजामें की जगह पेंट ,गांव में नगे पांव विध्यालय जाता था, दिल्ली मॅ पिताजी ने जूते दिला दिए.निःसन्देह जीवन विकास की ओर अग्रसर था। गाँव आना जाना लगा ही रहता था,दादा- दादी, ताऊ,चाचा, परिवार कुटुम्ब के अन्य स्वजन , बाल सखा ,गांव के अन्य बड़े,वस्तुतः उस समय ये ज्ञान ही नहीं था,कि ये दुसरे हें, या दुसरे परिवार के हैं,और आज भी केवल यही ज्ञान हुआ है,कि मात्र घर और खेत ही अलग हैं।. वो तो मेरे भी हैं, पेड़ पौधे ,घर-आंगन ,छत चारपाई जितना बचपन मे मेरा था ,उतना आज भी है, बस थोडा सा परिवर्तन हो गया है. मेरी उम्र से सम्बंधित लोकाचारों का, बाकी सब वैसा ही है, जैसा पचास साल पहले था,आज आधुनिक सभ्यता से संबन्धित तकनीक, संचार साधनों और उपकरणों ने ग्रामीण जीवन के परिवेश को बहुत सीमा तक प्रभावित किया है.लेकिन उनके सरल स्वभाव,उनके प्रकृति प्रेम, वस्तुतः उनकी मोलिक स्वाभाविकता को प्रभावित नहीं कर सकी।घर में सात्विक वातावरण था। घर में ही नहीं पुरे गांव में एैसा ही वातावरण था और आज भी है ,वस्तुतः भारत के हर गांव में एैसा ही वातावरण होता है। धार्मिक पौराणिक किस्से कहानियां लोगो के जीवन में रचे बसे होते हैं। उनके चरित्र व स्व्भाव का आधार होते हैं। लोक जीवन की आत्मा व शक्ति होते हैं,उनके आचार विचार,क्रिया- कलाप मनोरंजन के साधनों में, यहॉँ तक कि उनके दैनिक व्यवहार में अनुभव किये जा सकते हैं।मेरे घर में मेरे दृष्टि-हीन चाचा थे ,मेरे पिता के सबसे छोटे भाई, वे अपने क्षेत्र के प्रख्यात लोक गायक थे, यही उनकी आय का साधन भी था। दूर-दूर से उन्हें बुलावे आते। वे लोक कथाओं को लोक गीतों की धुनो में पिरो कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उनकी गाई कथाओं में रामायण महाभारत व अन्य पौराणिक कथाओं के साथ-साथ आल्हा भी थी,जिसने मुझे अत्यधिक प्रभावित, किया तथा जिसे मैं आपसे बाँटना चाहता हूं। प्रथा अनुसार आल्हा सुनने सुनाने का समय वर्षा ऋतु है। उमड़ते-घुमड़ते बादलों और मेघ वर्षा के साथ-साथ आल्हा कथानक उनकी वाणी के उतार चढ़ाव, साथसाथ ढोलक की थाप, झांझ की झंकार के रूप में तलवारों का चित्रण, श्रोताओं में शक्ति का संचार कर देता था।वातावरण सजीव हो उठता था। चौपाल में एकत्रित जन -समूह में से वीरता से ओत -प्रोत ध्वनियां आतीं। मूछों पर ताव देना, खड़े होकर भुजाएं लहराना,ताल ठोकना जैसे दृश्य मुझे आज भी याद हैं। इसी कारण मुझे पूरे वर्ष वर्षा ऋतु की प्रतीक्षा रहती। चाचा से पूछता रहता, की उन्हें कहाँ-कहाँ से आल्हा के लिए आमंत्रण हैं। यदि समीप के किसी गांव -कस्बे में होता, तो मैं भी उनके साथ हो लेता। आल्हा सुनने के कारण कई-कई दिन विध्यालय से अनुपस्थित रहता ,घर से भी डांट पड़ती, विद्यालय से भी,किन्तु आल्हा सुनने का मोह न छोड़ा जाता.यही कारण है कि ग्राम्य लोक जीवन में यह इतना लोकप्रिय है। आल्हा ,उदल, मलखान व ताल्हा सैयद आदि इनके सर्व मान्य नायक हैं। इसके अनूठे वीर रस काव्य से प्रेरित होकर ही ईस्वी १९२१ में फर्रुखाबाद के डिप्टी -कलक्टर सी.ई.इलियट साहब ने इसको अल्हैतों से सुनकर इसका अंग्रेजी में अनुवाद करा इंग्लैंड भेजा। अंग्रेज सरकार ने विश्व युद्ध के समय सैनिकों में वीरता का संचार करने के लिए अल्हैतों का सहारा लिया।आल्हा, रामायण, महाभारत के बाद भारतीय लोककथाओं में अपना विशेष स्थान रखती है."आल्हा -उदल '' नाम की इस महान ऐतिहासिक व पौराणिक कथा के साथ विड़ंबना यह रही कि यह आंचलिक व प्रादेशिक लोक काव्य के रूप में ही उपलब्ध है,जिसे संभवतः आज का तथाकथित सिनेमा तथा दूरदर्शन से सम्बंधित बुद्धिजीवी वर्ग उस समय के देश काल को समझने मैं अपने आप को असमर्थ पाता है।
,. 'आल्हा-उदल' का स्थान रामायण व महाभारत के बाद तीसरा है, किन्तु रोचकता ,नाटकीयता व संगीत कि दृष्टी से अद्वितीय है, किन्तु यह केवल भारत के ग्रामीण जीवन व किस्से कहानियो तक सीमित रही, और आज भी है। आल्हा कई लोक भाषाओं में गाई जाती है। आज के मध्यप्रदेश ,उत्तर परदेश ,राजस्थान। हरियाणा बिहार आदि में बड़े चाव से गायी सुनायी जाती है,आज जो पुस्तकें "आल्हा-खण्ड़ "के नाम से उपलब्ध हैं वे सब लोक भाषाओँ में हैं। आल्हा को आधुनिक लेखकों नाट्यकारो ने उपेक्षित ही किया, जब की आल्हा ग्रामीण समाज के लोक जीवन में रामायण व महाभारत जैसा प्रभाव रखती है। दूसरे इन्हे गाने वाले आज बहुत कम रह गए हैं , क्योकि आज के युवावर्ग को, विशेषकर शहरी समाज में तो यू भी रामायण व महाभारत या अन्य पौराणिक कथाओं का ज्ञान न्यून ही है, क्योंकि इन पर मनन चिन्तन करने वालो को पुरातन पंथियों की संज्ञा दी जाती है। आधुनिकता का अर्थ पाश्चात्य संस्कृति का ,उनकी भाषा ,गायन व नृत्य यहां तक के उनके रीति रिवाज़ों का अनुसरण करना मात्र है। ऐसे वातावरण में भारतीय पुरातन कहानी -कथाओं व कलाओ का जीवित रहना सर्वथा कठिन है। पहले आल्हा गायको को समाज में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। गायक आल्हा गायकी अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित कर देते थे ,यही उनके जीवन यापन का माध्यम भी था। धीरे -धीरे मनोरंजन के आधुनिक रूप सिनेमा ,टीवी आदि हमारी पुरातन संस्कृति पर हावी होते चले गये, आल्हा गायकों ने भी जीवन यापन के लिए दूसरे व्यवसाय अपना लिए। आल्हा जैसी अनगिनत चरित्र निर्माण, जीवन निर्माण व समाज निर्माण की कथायें विलुप्ति के कगार पर आ गईं ,वस्तुतः विलुप्त ही हो गईं। आल्हा के साथ एक दुर्योग यह भी रहा कि उस काल के एक प्रधान चरित्र पृथ्वीराज चौहान पर चन्द्रवरदाई ( जो पृथ्वीराज का अभिन्न मित्र व राज कवि था ) द्वारा लिखित "पृथ्वीराज रासो" ही एक मात्र पुस्तक साक्ष्य उपलब्ध है।जिसे आधुनिक बुद्धिजीवियों ने ''आल्हा खंड ''से कहीं अधिक प्रधानता दी। उन्होंने पृथ्वीराज रासो को ''आल्हाखण्ड''से कहीं अधिक समीक्षा योग्य समझा,उन्हें''पृथ्वी राज रासो में ही छंद महिमा,अलंकार व भाषा विन्यास दृष्टि गत हुए, ''आल्हा खंड''को उन्होंने गँवई कथा समझ कर समीक्षा योग्य नहीं समझा। यह सत्य है की पृथ्वी राज रासो उस समय के भाषा विज्ञानं की दृष्टि से एक अमूल्य धरोहर है,किन्तु क्या ''आल्हा खंड" जो ''पृथ्वी राज रासो ''से कहीं अधिक लोकप्रिय है,और उस समय की राज नीति ,कपट नीति ,वव्यहार नीति व लोक नीति का उत्कृष्ट काव्य है, उसका कोई स्थान नहीं ?उसमें उल्लखित नायकों का इतिहास में केवल इतना ही वर्णन है, की वे राजा परिमल के वीर सेनापित थे।उनके द्वारा किये गए देश भक्ति पूर्ण कार्यों का क्या कोई महत्व नहीं ?क्या वे यूँ ही किसी से युद्ध ठान लेते थे ?वास्तविकता में वे एक राजा को दूसरे राजा का सम्बन्धी बनाकर ,उनमें सम्बन्ध स्थापित करा,पूरे आर्यावृत को एक सूत्र में पिरोना चाहते थे,और उनके इस पवित्र अनुष्ठान में पृथ्वी राज ही सबसे बड़ी बाधा बने। पृथ्वी राज की राज्य विस्तार की अनीतियों के सामने भी वे वीर अडिग रहे ,जबकि राजा परिमल सहित उन वीरों ने पृथ्वी राज का सम्मान ही किया ,किन्तु पृथ्वी राज जब वीरता में उनके समक्ष नहीं टिक पाये, तो पृथ्वी राज ने छल-बल और अन्य अनीतियों का सहारा लिया। पृथ्वीराज के चरित्र को महान बनाने के लिए चंद्रवरदाई ने अतियुक्ति और अतिश्योक्ति की सीमाओं का उल्ल्घंन किया। पृथ्वीराज द्वारा किये हर कार्य को महानतम बताया। पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी से अनेक युद्ध किये (इतिहास के अनुसार सात युद्ध ) युद्ध में विजयी होने के बाद मोहम्मद गौरी को युद्ध में हरा उसके अस्त्र-शस्त्र विशेषकर उसके उन्नत प्रजाति के घोड़े छीन कर ( जिनकी हर राजा को अपनी सैना के लिए विशेष आवश्कता होती थी ) तथा वे विशेष मूल्यवान भी होते थे,पृथ्वीराज को मोहम्मद गौरी से विजय स्वरुप ही प्राप्त हो जाया करते थे, तथा बंदी बनाकर छोड़ने के उपलक्ष्य मैं दण्ड स्वरुप मोहम्मद गोरी से विपुल धन ऐंठ कर हर बार छोड़ना। ऐसा करना राजनैतिक दृष्टि से कहां तक उचित था?।पृथ्वीराज ने गौरी को सात बार हराया,किन्तु गौरी ने केवल एक बार ही हरा कर सम्पूर्ण भारत वर्ष पर अपना अधिकार कर लिया, तथा पृथ्वीराज को बंदी बना कर, ग़जनी ले जाकर उसकी इस राजनैतिक महाभूल काबदला लिया,पृथ्वीराज को अंधा बना, उसे कालकोठरी डाल कर,किन्तु चंदरबरदाई ने इसे एक महान मनोरंजक गाथा'' पृथ्वीराज रासो'' लिखकर पृथ्वीराज को महानायक बनाने का सफल प्रयास किया।क्यों नहीं मोहम्मद गौरी को उसकी सीमा तक रगेद कर मारा? तथा क्योंनहीं उसके प्रथम प्रयास में ही उसके राज्य पर अधिकार कर, अपने राज्य को विस्तारित किया?क्यों बार बार गोरी को अवसर दिया?,किन्तु चंद्रबरदाई नें इसे पृथ्वीराज की सहृदयता ,महानता क्षमा कर देने कि भारतीय परम्परा बता कर स्थापित, किया।ये विचारणीय प्रश्न हैं ।पृथ्वीराज ने जीवन पर्यन्त १४ विवाह किये,किन्तु चंद्रबरदाई ने इनमें से अधिकांश तो प्रेम विवाह सिद्ध किये, अन्य राजनैतिक दृष्टि से अपरिहार्य।
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निसंदेह पृथ्वीराज अप्रतिम वीर थे,किन्तु उन्होनें अपनी वीरता का क्या उपयोग किया ? जयचंद और पृथ्वीराज सगे मौसेरे भाई थे ।इनकी माताएं दिल्लीश्वर अनंगपाल की पुत्रियां थीं ,बड़ी पुत्री चंद्रकांति का विवाह जयचंद के पिता विजयपाल के साथ संपन्न हुआ था, तथा कनिष्ठ पुत्री कीर्तिमालिनी का विवाह अजमेर के राजा सोमेश्वर के साथ हुआ था।
एक बार गजनी के सुल्तान ने दिल्ली पर आक्रमण हेतू अटक नदी पर डेरा डाल कर ,अनंगपाल के पास युद्ध हेतु सन्देश भिजवाया। दिल्ली का सिंहासन अनंगपाल की अनुपस्थिति मैं रिक्त ना रहे ,ना जाने युद्ध मैं कितना समय लगे? इस लिए अनंगपाल ने युद्ध से लौट कर आने तक,अपने सभासदों की सम्मति से, अजमेर से पृथ्वीराज को बुलवाकर, सिंहासन पर आसीन कर दिया। किन्तु जब युद्ध जीतकर अनंगपाल लौटे, तो पृथ्वीराज ने उन्हें दिल्ली में प्रवेश नहीं करने दिया।दिल्ली को अजमेर से भी सेना बुला कर ,तथा इस अंतराल में और सेनिको की नियुक्ति कर, दिल्ली को एक सुदृढ़ किले में परिवर्तित कर दिया। कुछ दिन तक दिल्ली पुनः प्राप्ति के लिए अनंगपाल ने बाहर से ही सैन्य प्रयोग किया। किन्तु यह सोचकर कि अंततः दिल्ली तो मुझे अपने धेवतों को ही तो देनी थी।पृथ्वीराज ने यह अच्छा तो नहीं किया।कुछ सभासदों की मध्यस्तता से अपने बद्रिकाआश्रम जाने का सन्देश पृथ्वीराज तक प्रेषित करवाया ,ताकि जीवन का बचा समय ईश्वर की भक्ति में व्यतीत कर सकें।वे पृथ्वीराज से मिलकर उसे समझाने का प्रयत्न भी करते हैं, कि ,आधी दिल्ली पर मेरी इच्छा अनुसार जयचंद का अधिकार है। इसलिए मेरी इच्छा का सम्मान करते हुए आधी दिल्ली जयचंद को सौंप दें। पृथ्वी राज कहते हैं कि हाथ आई भूमि को छोड़ना क्षत्रिय धर्म नहीं है ,यदि जयचंद चाहें तो युद्ध कर पूरी दिल्ली पर ही अधिकार कर लें।अनंगपाल पृथ्वीराज को भरसक समझाने का प्रयत्न करते हैं ,किन्तु पृथ्वीराज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अनंग पाल अपनी चिराभिलाषा कि पूर्ति हेतु बद्रिकाश्रम जाने की इक्षा प्रकट करते हैं।पृथ्वीराज १० लाख स्वर्ण मुद्राएं, तथा २ हजार अनुचर उनके साथ भेजकर उनकी इच्छा पूर्ति करते हैं।इस प्रकार जयचंद और पृथ्वीराज मैं बैर का सूत्र पात हो जाता है।
राजा जयचंद की पुत्री संयोगिता का हरण केवल जयचंद का मानमर्दन ही करना था।क्य़ोंकि दिल्लीश्वर अनंगपाल के कोई पुत्र नहीं था।उनका निश्चय था कि दिल्ली वे अपनी पुत्रियों के पुत्र (धेवतों ) को ही देंगे। इस प्रकार जयचंद भी आधी दिल्ली के अधिकारी थे, क्य़ोंकि अनंगपाल दोनो ही के नाना थे। इस प्रकार संयोगिता पृथ्वीराज की भतीजी थी। उसका अपहरण कर पृथ्वीराज ने कौन सा मानदण्ड स्थापित किया।सुधि पाठकगण स्वयं संज्ञान लें।
राजा जयचंद का राज्य कन्नौज उस समय आर्यावृत का सबसे बड़ा राज्य था ,जो उस समय वर्तमान आसाम-बंगाल तक फैला था, तथा दूसरी तरफ दिल्ली की सीमाओं को भी छूता था।अपने राज्य को व्यवस्थित तथा संचालित करने के लिए (जो उन्हें अपने पूर्वजो से प्राप्त हुआ था )विशेष प्रयोजन करना पड़ता था।
वह काल सामंतकाल या वीरकाल के नाम से जाना जाता है।उस समय भारतवर्ष में वीर, सामन्त व सेनापति प्रचूरता से उपलब्ध थे, जिसके कारण शत्रु भारतवर्ष पर आक्रमण का साहस नहीं जुटा पाते थे ,किन्तु जयचन्द और पृथ्वीराज के वैमनस्य के कारण अधिकांश वीर अकारण ही खेत रहे, जिससे देश वीर विहीन और दुर्बल हो गया।चंद्रबरदाई ने जयचंद को पृथ्वीराज रासो मैं देशद्रोही का पर्याय बनाया,यह कहाँ तक उचित है?क्या इस सब के लिए जयचंद को दोषी मानना न्याय संगत है?
वीरों की इस श्रेणी में आल्हा-ऊदल आदि सम्भवतः अंतिम वीर रहे, वे भी पृथ्वीराज के कारण ही समाप्त हुए ,वस्तुतः पृथ्वीराज के छल के कारण।वीरों के इस प्रकार निरर्थक मारे जाने के परिणाम स्वरुप भारतवर्ष शक्ति विहीन होकर परतंत्रता के अँधेरे गर्त में समा गया, जिससे सम्भवतः हम आजतक नहीं उबर सके।
हमारा इतिहास हमारी परम्पराओं की तरह ही समृद्ध और गौरवशाली रहा है ,किन्तु अत्यन्त खेद है कि उस स्वर्णिम युग के इतिहास का ज्ञान अल्प ही है।पता नहीं क्यों विध्यालयों में छात्र-छात्राओं को वास्तविक इतिहास से दूर ही रखा जाता है?इतिहासकारों ने मध्यकाल के इस सवर्णिम काल खण्ड पर कुछभी विशेष वर्णन योग्य कार्य नही किया,उलटे भ्रम की स्तिथि ही उत्पन्न की। वर्तमान इतिहासकारों ने तो जो वर्णन किया है, वह तो भारतीय इतिहास के साथक्रूर उपहास ही है। मैं किसी धर्म ,वर्ण ,जाति व समुदाय के विरुद्ध नहीं हूं।मैं तो भारत के सर्व धर्म सम्भाव का पक्ष धर हूँ।
दिल्ली मैं विध्यार्थी जीवन में भारतीय इतिहास के बारे में जब पढ़ाया जाता तो कुछ बातें जन-कथाओं और इतिहास से मेल नहीं खातीं। आज जो भी प्राचीन किले , स्मारक यथा ताज-महल ,लाल-किला ,क़ुतुब-मीनार, हुमायूँ का मकबरा ,फ़तेहपुर सीकरी व देश मैं फैले अन्य अनगिनित स्मारक यवन या मुगलों से सम्बंधित हैं ।मात्र एक पुराना किला ,जिसके आज भग्नांश शेष हैं ।जो ५ हजार वर्ष सेभी अधिक पुराना है,हिन्दुओं द्वारा निर्मित किला है ।प्रश्न उठता है कि ३ हजार वर्ष से भी अधिक दिल्ली मैं अनेक हिन्दु राजाओं ने राज किया , किन्तु उन्होंने अपने आवास के लिए कुछ नहीं बनाया ।उनके सामन्त सरदार ,सेवक ,अनुचर व उनकी सेनाओ आदि कि कोई व्यवस्था नहीं थी ? भारतवर्ष के अंतिम हिन्दु राजा या उनसे पूर्व के राजाओ ने भी ऐसा नहीं किया ?उनके आवास के कोई अवशेष नहीं, हाँ मन्दिर -देवालय अवश्य हैं, तो वे कहाँ रहते थे?क्या ये प्रश्न विचारणीय नहीं है?..... विचारिये।
मेरा अभिप्राय आपको आल्हा-ऊदल की कथा से अवगत कराना है, ना कि विषय बदल कर इतिहास विवेचन करना। मध्यप्रदेश ,उत्तरप्रदेश ,हरियाणा ,राजस्थान ,बिहार व अन्य ग्राम्य लोक-समाज में रामायण व महाभारत के बाद आल्हा का स्थान है,किन्तु आल्हा विलुप्ती के कगार पर है क्यों …… ? इसके कारण मैं पहले ही दे चूका हूँ ,किन्तु भारतीय ग्राम समाज में रामायण-महाभारत की तरह यह आज भी जीवित है। आल्हा उस समय के समाज का सजीव चित्रण है। आज जिस प्रकार राज नेता समाज को भाषा ,धर्म ,समुदाय व जातियों के नाम पर बाँट कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं ,उन्हें आपस में संघर्षरत रखते हैं। इसके उलट आल्हा सर्व धर्म सम्भाव का आदर्श चित्रण करती है। वीरता -धीरता दया-करुणा, किसी जाति या धर्म विशेष की धरोहर नहीं है।आल्हा में भिन्न- भिन्न जाति ,धर्म ,वर्ण व समुदायों के वीरों का वर्णन है। इसमें एक प्रधान चरित्र ताल्हा सैय्यद का विशेष रूप से वर्णन है। इनका नाम ही इनके मुस्लिम होने का प्रमाण देता है। ताल्हा सैय्यद ने अपनी मृत्यु पर्यन्त , दस्सराज -वत्सराज (आल्हा,ऊदल ,मलखान व सुलखान के पिता ) के मित्र होने के कर्तव्य का निर्वाह किया। आल्हा -ऊदल मलखान ,सुलखान आदि के संरक्षक होने के नाते उनमे वीरता ,धीरता ,दया ,करुणा, आदि मानवीय गुणो का विकास किया । समाज के लिए एक सौहार्द, मानवता व सद्भावना का अनूठा उदाहरण होने के कारण आल्हा -ऊदल जैसी अनूठी लोकगाथा आज अत्यधिक तार्किक और प्रासंगिक है।
।। आल्हा संग्राम की पूर्व कथा ।।
महाभारत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् पांडव भगवान श्री कृष्ण से कहते हैं ,कि प्रभु युद्ध तो हमारी वीरता के कारण मात्र १८ दिनों में ही समाप्त हो गया,हमारी युद्ध की इक्षा तो अपूर्ण ही रह गयी। अब तो हमारे अतिरिक्त धरा पर कोई वीर बचा ही नहीँ ,अब किससे हम अपने वीर होने का प्रमाण पाएं। भगवान श्री कृष्ण इसे पांडवों का अहंकार, जान पांडवों को कौरवों के हाथों मृत्यु प्राप्त करा, बैकुंठ पहुँचाने के अपने प्रयोजन हेतु, अपनी लीला रचते हुए, भगवान शंकर की मानसिक आराधना करते हैं। भगवान शिव प्रकट होते हें,पूछते हैं कि "प्रभु क्या आज्ञा है "। भगवान कृष्ण कहते हें कि ये पांडव मेरे शिष्य तथा भक्त हें,इन्होनें बहुत दुख झेलें हैं,कृप्या इन्हें अपनें आश्रय में लेकर इनकी रक्षा कर, इन्हें अनुग्रहित करें । भगवान शंकर ''जो आज्ञा प्रभु ''कह पांडवों के शिविरों पर आरक्षी बन खड़े हो जातेहैं। पांडव उस समय युद्ध में मारे गए अपने सम्बन्धियों के श्राद्ध कर्म इत्यादि हेतू सरस्वती तट पर होतें हें। अर्द्ध रात्रि के समय अश्वत्थामा,भोज व कृपाचार्य पांडव पुत्रों के वध हेतु वहाँ आते हैं। क्योंकि अश्वत्थामा नें महाभारत युद्ध में, अपनें पिता द्रोणाचार्य की पांडवों के हाथों मृत्यु के समय सौगंध ली थी, कि में पांडवों के वंश को निर्मूल कर दूंगा। तीनों शिविर पर पहुँच कर देखते हें कि वहाँ तो भगवान शिव पहरा दे रहें हें। अश्वत्थामा,भोज ,व कृपाचार्य उनकी स्तुति कर उन्हें प्रसन्न करते हैं। भोले तो भोले ही हैं , भगवान शिव प्रसन्न होकर उन्हें वर मागनेंको कहते हें। अश्वत्थामा कहते हैं कि "प्रभु हम पर कृपा करें तथा हमें शक्ति दें"। भगवान शिव उन्हें शक्ति स्वरुप एक खड्ग प्रदान करते हैं। अश्वत्थामा कहते हैं कि "प्रभु शिविर में प्रवेश हेतू मार्ग दें"।भगवान शिव शिविर के मुख्य द्वार से हट जातें हैं।अश्वत्थामा आदि शिविर प्रवेश कर धृष्टद्युम्न सहित सारे पांडव पुत्रों का वध कर देतें हैं। एक परिचारक छुप कर यह सारा जघन्य कांड देख लेता है। अश्वत्थामा आदि वध करके चले जाते हैं। वह परिचारक शीघ्र सरस्वती तट पर पहुँच कर अश्वत्थामा के इस जघन्य काण्ड कि सूचना पांडवो को देता है। पांडव शीघ्रता से शिविरों पर पहुँचते हैं ,वहाँ पर भगवान शिव को देख भ्रमित हो अविवेकी हो जाते हैं। उन्हें कोई बहरूपिया जान, तथा अश्वत्थामा का सहयोगी मान कर,उन पर अपने अश्त्र -शस्त्रों से आक्रमण कर देतें है। एक -एक कर सारे पांडवों के अस्त्र -शस्त्र भगवान शिव के शरीर में विलीन हो जाते हैं। अब पांडव उन पर शारीरिक प्रहारों द्वारा आक्रमण करते हैं। भगवान शिव अंतर्ध्यान होकर आकाशवाणी करते हैं,कि "हे बुद्धिहीन पांडवो तुमने कृष्ण के द्वारा रक्षित होने पर भी यह महापाप किया है अतः मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि इसी धरा पर तुम्हारा वध होगा "।
पांडव भविष्यवाणी सुनकर, व स्वयं को अस्त्र -शत्र विहीन जान शोकाकुल हो जाते हैं। इतने मैं भगवान श्री कृष्ण कुंती, द्रोपदी व अन्य रानियों के साथ वहाँ पहुँचते हैं। रानियां अंदर शिविरों में जाकर शोकाकुल हो जातीं ,किन्तु श्री कृष्ण पांडवों के पास बाहर ही रुक जातें हैं। पांडवों को शोकाकुल जान उनसे समस्त वृतांत पूछतें हैं। पांडव उन्हें पुत्रो के वध सहित सारा वृतांत बताते हैं। भगवान श्री कृष्ण कहते है, कि श्राप से मुक्ति का उपाय तो भगवान शिव ही बता सकते, हैं इसके लिए तो उन्हें ही प्रसन्न करना होगा। सारे पांडव श्री कृष्ण सहित भगवान शिव की स्तुति करते है, भगवान शिव प्रकट होकर पांडवों की विपदा जान कहते हैं, कि प्रभु मैं तो आपकी लीला से मोहित हो गया,जिसके फल स्वरुप इतना भयंकर श्राप दे दिया। अब आप के कथनानुसार मैं इन्हे इनके अस्त्र - शस्त्र लौटा देता हूँ ,किन्तु अब मेरा दिया श्राप तो अन्यथा नहीं हो सकता ,इस पृथ्वी पर ही इनका आंशिक जन्म होगा। युधिष्ठिर मलखान नाम से सिरसा के अधिपति होंगे,इनके पिता वत्सराज होंगे, भीम ताल्हान नाम से बनारस के अधिपति होंगें। अर्जुन राजा परिमल के यहाँ ब्रह्मानंद के नाम से उत्पन्न होंगे। कन्नौज के रतिभान के यहाँ लाखन नाम से नकुलउत्पन्न होंगें ,तथा सहदेव भी देवसिंह नाम से परिमल के भ्राता भीष्म सिंह के यहाँ उत्पन्न होंगे। धृतराष्ट्र के अंश से पृथ्वीराज अजमेर के अधिपति सोमेश्वर के यहाँ उत्पन्न होंगे,पृथ्वीराज की पुत्री बेला द्रोपदी के अंश से उत्पन्न होगी, कर्ण तारक के नाम से पृथ्वीराज के यहाँ जन्म लेंगे। रक्तबीज भी चौड़ा के नाम से जन्म लेंगे। रूद्र भी भूतल पर अवतरित होंगे।
. भगवान श्री कृष्ण ने हंस कर कहा फिर तो मैं भी अपने अंश से दस्सराज के यहाँ आल्हा व उदल के नाम से अवतार लुंगा।
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इस कथा के प्रमुख पात्रों में राजा परिमल का नाम आता है। राजा परिमल चंदेल वंश के प्रतापी राजा हुए हैं। चंदेल वंश से ही चंदेरी का नाम पड़ा।राजा परिमल राजा कीर्तिबृह्म के पुत्र थे। महोबे में आज भी इनके नाम से कीर्ति सागर नाम का जलाशय है। राजा परिमल ने युवा होते ही, उस समय की प्रथा के अनुसार आर्यावृत में अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया। इन्होने आर्यावृत के लगभग सभी राजाओं को युद्ध में परास्त कर, उन पर अपनी विजय पताका फहराई, किन्तु राजा परिमल ने उन सभी से मैत्री सम्बद्ध स्थापित कर उनका राज्य उन्हें लौटा कर अपनी सह्रदयता का परिचय दिया। इनके पास २० लाख सेना थी। अनंग पाल जैसे बड़े राजा भी इनसे भय खाते थे।
कन्नौज राज्य जो उस समय आर्यावृत का सबसे बड़ा राज्य था ,उसके साथ इनका वयवहार अत्यन्त मधुर था, क्योंकि पूर्व में इनके वंश कि चम्पावती नामक एक कन्या कन्नौज के संस्थापक राजा कनवज को ब्याही थी ,जिसके कारण परस्पर सहायता तथा समानता का व्यवहार था।कन्नौज के राजा जयचंद राजा परिमल का अत्यन्त सम्मान करते थे। आर्यावृत में उस समय कन्नौज से समृद्ध व शक्तिशाली कोई राज्य नहीं था।कन्नौज राज्य उस समय कामरूप (आज के असम, बंगाल, मणिपुर व त्रिपुरा) तक विस्तारित था,तथा इधर दिल्ली को छूता था।कन्नौज नगर का घेरा पंद्रह कोस (लगभग ४०किलोमीटर )से भी अधिक तक विस्तारित था।कहा जाता है कि तीस हजार दुकानें तो तम्बोलियों की थीं तथा राजा जयचंद ८० लाख सेना के अधिपति थे. व्यापार का प्रमुख केंद्र होने के साथ-साथ कन्नौज राठौर वंश का भी केंद्र था। कहने का तात्पर्य हे की ,समस्त आर्यावृत की आर्थिक,सामाजिक व राजनैतिक गतिविधियों का केंद्र था।
राजा परिमल अपने पिता महाराजा कीर्तिबृह्म की म्रत्यु के बाद राज्य सिंहासन पर बैठे। अपने पिता महाराजा कीर्तिबृह्म से राजा परिमल अत्यन्त स्नेह करते थे ,इस कारण राज्य मुकुट धारण करते ही वे उदासीन रहने लगे। मंत्री व सेनापति आदि ने इन्हे इस स्थिति से उबारने के लिए आखेट की व्यवस्था की। राजा परिमल एक मृग का पीछा करते हुए अपने सैन्य दल से बिछुड़ जाते हैं। प्यास से आकुल होने के कारण किसी नदी या जलाशय का पता लगाने के लिए, एक ऊचे वृक्ष पर चढ़ते हैं। एक स्थान पर धुंआ उठता देख ,वृक्ष से उतर कर वहाँ पहुँच कर देखते हैं, कि एक तपस्वी अपने चारों ओर अग्नि का घेरा बनाकर समाधिस्थ है। राजा परिमल तपस्वी को कई बार पुकारते है, किन्तु उनकी समाधी भंग नहीं होती। राजा परिमल उसे ढोंगी अहंकारी जान, उसकी कुटिया में आग लगा, उसके कमण्डल में रखा मंत्राभीषिक्त जल पी जाते हैं। अग्नि ताप बढ़ने पर तपस्वी अपने नेत्र खोलते हैं। सामने राजा परिमल को देख क्रोधित हो पूछते है ,कि ये सब किसने किया ,मेरी कुटिया को किसने जलाया? किसने मेरे कमण्डल में रखा मंत्राभीषिक्त जल पिया? राजा परिमल अनभिज्ञता दशाते हैं ,किन्तु तपस्वी आँख मूंद ,योग -बल से समस्त वृतांत जान लेतें हैं ,और क्रोधवश श्राप देते हैं, कि यह जल तेरे उदर में विष बनकर तेरे रूप -यौवन को नष्ट कर देगा ,तू अभी इसी क्षण कोढ़ी हो जा। राजा परिमल तुरंत कोढ़ी की दशा को प्राप्त होते हें। अब उन्हें अपनी भूल पर अत्यधिक पश्चाताप होता है। आत्मग्लानि वश राजा परिमल तपस्वी से क्षमा मांगते हैं। राजा परिमल तपस्वी के पैरों मैं गिरकर दया याचना करते हैं। बार-बार राजा परिमलकी क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कहते हैं कि ,अब मुझे तेरी दशा पर दया आ रही है ,किन्तु मेरा दिया श्राप अब लौट तो नहीं सकता। हाँ..... तेरी अपनी पतिव्रता पत्नी तुझे मेरे इस श्राप से मुक्त करेगी ,उसके पश्चात तू पुनः अपनी पूर्व दशा को प्राप्त कर ,वर्तमान से भी अधिक राज्य वैभव और सुख का जीवन व्यतीत करेगा।यह मेरा आशीर्वाद है।
राजा जो कुरूप कोढ़ी की दशा को प्राप्त हो चुके होतें हैं,अपने मन में सोचते हैं,कि शास्त्र अनुसार रोगी कोढ़ी को राज्य करने का कोई अधिकार नहीं है ।वे अपने राजसी वस्त्रों को वहीँ एक वृक्ष पर टांग, ,अपना अश्व भी वहीं छोड़ धीरे -धीरे चलते हुए एक राज मार्ग पर आ जाते हैं। सैन्य दल उन्हें खोजता हुआ वहाँ पहुँचता है ,किन्तु उन्हें वहाँ उनका अश्व और राजसी वस्त्र ही प्राप्त होते हें। उस बीहड़ घने जंगल में कई माह उनको खोजने के पश्चात्, हताश होकर, ये मान कर कि राजा परिमल विरक्त भाव से सब कुछ त्याग कर साधु -सन्यासी वन न जाने कहाँ चले गये हैं। चन्देरी लौट आते हैं। चंदेरी की राज्य व्यवस्था का उनके कनिष्ठ भ्राता भीष्म सिंह ,मंत्रियों व अन्य अधिकारीयों की सम्मति से निर्वाह करने लगते हैं। राजा परिमल उस मार्ग पर पथिकों -यात्रियो की दया पर निर्भर हो,श्रापित जीवन के अंत की प्रतीक्षा करने लगते हैं।
महोबे के राजकुमार माहिल अपने पिता राजा वासुदेव के वृद्धावस्था तथा गिरते स्वास्थय के कारण अपने पिता के मार्ग दर्शन से राज्य व्यवस्था चलाते हैं। राजा वासुदेव के २ पुत्र माहिल व भोपति तथा ५ कन्यायें मल्हना ,अगमा ,तिलका ,दिवला व ब्रह्मा नाम की होती हैं।
राजकुमार माहिल कुटिल प्रवृति के होतें हैं। एक दिन वे एक प्रकाण्ड ज्योतिषि से अपने परिवार के भविष्य आदि का वृतांत पूछते हैं, तो उन्हें पता चलता है कि , उनकी बहन मल्हना उन्हें राज्यच्युत कर महोबे की महारानी बनेगी। उसी दिन से माहिल मल्हना का अहित विचारने लगता है। एक दिन अपने पिता द्वारा प्रजा जनों को दान देते समय राजा और प्रजा के अन्तर,तथा राजा ही प्रजा का भाग्य विधाता होता है,इस विषय पर बहनों से वाद - विवाद कर बैठते हैं। अन्य बहनें तो माहिल की बात का अनुमोदन करती हैं ,किन्तु मल्हना कहती है, कि सबका भाग्य विधाता ईश्वर होता है ,ईश्वर चाहे तो राजा को रंक और रंक को राजा बना दें। ईश्वर के अतिरिक्त और कोई किसी के भाग्य का निर्माण नहीं कर सकता। महिल कहता है यदि हम तुम्हारा विवाह किसी निर्धन से किसी रोगी कोढ़ी से कर दें,तो क्या तुम इसे भी ईश्वर इच्छा ही कहोगी ? मल्हना कहती है कि यदि मेरे भाग्य में ऐसा लिखा होगा तो ऐसा ही होगा।
कुटिल माहिल मल्हना को अपने मार्ग से हटाने का विचारने लग जाता है।एक दिन अवसर पा माहिल अपने पिता व माता को अपनी कुटिल नीति में उलझा कर अपनी बहन मल्हना का विवाह कोढ़ी (राजा परिमल) व दूसरी बहन अगमा का विवाह पृथ्वीराज से करने का उपाय ढूंढ ही निकालता है।
(निर्देश - पृथ्वीराज को दिल्ली प्राप्ति का वर्णन मैंने प्रारम्भ में मेरी बात में ही कर दिया है ,पाठकगण कृप्या एक दृष्टि उस पर भी डाल लें। )
समय पर माहिल अपनी बहन अगमा के लिये अपने नाई,बारी व राजपुरोहित के हाथोँ पृथ्वी राज को टीका चढ़वातां है ,तथा मल्हना के लिये कोई रोगी-कोड़ी ढूंढनें का निर्देश देता है। बेचारे नाई, बारी भी यह सुन कर दंग रह जाते हैं ,किन्तु माहिल के भय के कारण शांत रहते हैं। पृथ्वी राज को टीका चढ़ा , जब नाईं ,बारी आदि लौट रहे होते हैं ,तो मार्ग में कोढ़ी रूपी राजा परिमल पड़े मिल जाते हैं। नाई,बारी मल्हना का टीका कोढ़ी को चढ़ा देते हैं। माहिल दोनों बहनों का विवाह अपनी इक्षा अनुसार परम सुंदरी मल्हना का विवाह कोढ़ी रूपी राजा परिमल व दूसरी बहन अगमा का विवाह पृथ्वी राज से कर देता हे।
राजकुमारी मल्हना जो माँ शारदा कि परम भक्त थी ,इसे अपनी नियति मान ,दैवीय इच्छा मान ,अपनी नियति को स्वीकार कर स्वय को पति (राजा परिमल) की सेवा में समर्पित कर देती है।राजा परिमल मल्हना से बहुत बार कहते हैं ,कि तुम तो परम सुंदरी हो ,क्योँ मुझ जैसे कुरूप कोढ़ी से विवाह कर अपना जीवन अंधकार मय कर रहीं हो ?क्यों नहीं अपने जैसा सुन्दर वर खोज कर अपना ज़ीवन आनंद मय करतीं। मल्हना कहती है.…………………………………… आस तुम्हीं विश्वास तुम्हीं हो , तुम जीवन आधार। हार सिंगार सभी पिया तुमसे , तुम ही मेरा संसार। तन मन धन अब अपना सब कुछ , दूंगीं तुम पर वार । सोच संकोच त्याग प्रियतम तुम, कर लो मुझे स्वीकार। ,
जहां कोढ़ी (राजा परिमल) राजमार्ग पर पड़े होते हैं वहीँ एक माता (शारदा ) का एक जीर्ण -शीर्ण मंदिर होता है। मल्हना उस मंदिर की झाड़ -बुहार कर, उसमें स्थापित मूर्ति को स्नान आदि करा,अपने प्रयास भर पुनरुद्धार का प्रयत्न करती है।तत्तपश्चात माँ शारदा को भोग अर्पित कर ,अपने पति को भोजन करा ,वहीं पेड़ के नीचे सो जाती है।
माँ शारदा रानी मल्हना की भक्ति तथा सेवा से प्रसन्न हो, रात्रि में स्वप्न देती हैं,जिसमे वह मल्हना को पति के आरोग्य होने का उपाय, तथा वहाँ खुदाई कर श्री लिंग (पारस पत्थर ) को प्राप्त करने का रहस्य बताती हैं। प्रभात होने पर मल्हना एक पथिक को रोक कर तथा उसे कुछ स्वर्ण मुद्रायें देकर (जो उसे दहेज स्वरुप महिल ने दीं थीं ) अपने पति (राजा परिमल )को पिलाने के लिए सिरका व खुदाई के लिए कुछ यन्त्र (फावड़ा, कुल्हाड़ी,खुरपी आदि)मंगवाती है। वह पथिक भी अपनी सेवाओं का पर्याप्त से अधिक मूल्य पाकर,सहर्ष उसकी सहायता करता है।
मल्हना अपने पति (राजा परिमल) को सिरका पिलाती है,जिसे पीते ही राजा परिमल पुनः अपनी यौवन अवस्था को प्राप्त होते हैं ,मल्हना उनका वृतान्त जान, प्रसन्न हो पति सहित माँ शारदा कि आराधना करती है। राजा परिमल अपनी राजधानी चंदेरी अपने सकुशल होने का सन्देश भिजवाते हैं। चंदेरी में आनंद छा जाता है। वहाँ से भीष्म सिंह राज्य के अधिकारीयों एवं प्रमुख प्रजाजनों के साथ आकर, राजा परिमल व मल्हना को राजकीय आदर सहित चंदेरी ले जाकर, स्वयं को उनकी सेवा मैं समर्पित कर देते हैं। आशय यही की राजा परिमल तपस्वी के श्राप से मुक्त हो जातें हैं तथा राजा परिमलके जीवन मैं सुख का पुनः आगमन होता है।
।। दस्स राज व वत्स राज का जन्म ।।
बक्सर के जंगलो में व्रतपा नाम कि एक अहीरन राम और कृष्ण जैसे बलवान व चरित्रवान पुत्रों कि कामना से तप मे संलग्न होती है।
बक्सर के बनाफर वंशी राजा वासुमान आखेट के लिए उस जंगल में आते हैं। नवयौवना -रूपसी व्रतपा को तपस्या रत देख, उसके तेज व सुन्दरता से अभीभूत होकर मन ही मन उसकी कामना करने लगते हैं। राजा वासुमान जंगल मैं उस अहीरन की सुरक्षा की व्यवस्था करके, प्रतिदिन स्वयं भी उसके दर्शन करने के लिए आने का नियम बना लेते हैं।
एक शुभ दिन व्रतपा कि तपस्या से प्रसन्न हो माँ शारदा उसे प्रत्यक्ष दर्शन देकर उसकी मनोकामना पूर्ण होनें के आशीर्वाद के साथ -साथ राजा वासुमान से विवाह होने की भविष्यवाणी कर ,उसकी मनोकामना पूर्ण होने का मार्ग भी प्रशस्त करतीं हैं। व्रतपा वहाँ उपस्थित सैनिकों को देख आश्चर्य चकित हो कर, उनके वहाँ होने का अभिप्राय पूछती है। सैनिक उसे कहते हैं,कि उन्हें वहां के बनाफर वंशी राजा वासुमान ने जंगली जानवरों आदि से आपकी सुरक्षा हेतु वहां नियुक्त किया है। व्रतपा माँ शारदा की कृपा से आश्चर्य चकित होती है ,तभी राजा वासुमान भी वहां पहुंच जाते हैं। राजा वासुमान व्रतपा की तपस्या पूर्ण होने का समाचार सुन कर अति प्रसन्न होते हैं। राजा वासुमान व्रतपा को अपनी सैन्य सुरक्षा में उसके परिवार के पास पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं। व्रतपा सैन्य दल की सुरक्षा में निर्धारित स्थान पर पहुंच ,वहाँ अपने गावं के मात्र अवशेष देख कर दुखी होती है।एक राहगीर से पूछने पर पता चलता है,कि यह गावं तो कई वर्ष पूर्व ही भूकम्प से काल-कलवित हो गया था।व्रतपा उस गांव में अपना घर ढूंढने का यत्न करती हर,किन्तु उसे अपने घर के मात्र अवशेष ही मिलते हैं। व्रतपा और दुखी हो जाती है। गांव के लोगों के सम्बन्ध में पता चलता है,कि कुछ तो मृत्यु को प्राप्त हुए तथा अन्य जीवित यहाँ से अन्यत्र पलायन कर गए। व्रतपा अब अपने उस जीर्ण -शीर्ण घर को बनाने का प्रयास करती हे।उसे ऐसा करते देख सैन्य दल पति के संकेत पर अन्य सैनिक भी उसकी सहायता करते हैं। दलपति सैनिकों को व्रतपा की सुरक्षा तथा सहायता के लिए छोड़ कर राजधानी बक्सर लौट कर,सेनापति शत्रुजीत को वहाँ की स्थिति से अवगत कराता है।सेनापति तुरंत ही महाराज वासुमान को दलपति द्वारा दी गयी सूचना से अवगत कराता है, राजा वासुमान सेनापति शत्रुजीत के साथ तत्काल वहाँ के लिए प्रस्थान करते हें।राजा वासुमान वहाँ पंहुंच कर व्रतपा के समक्ष राजमहल में रहने का प्रस्ताव रखते हैं,जिसे स्वाभिमानी व्रतपा यह कह कर अस्वीकार कर देती हे कि,मुझ अविवाहित के इस प्रकार आपके महल में रहने से समाज व संसार क्या कहेगा?राजा वासुमान व्रतपा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखते हैं,जिसे व्रतपा सहर्ष स्वीकार कर लेती है।एक शुभ मुहूर्त में राजा वासुमान व्रतपा से विधिपूर्वक विवाह कर उसे अपने महल में ले आते हैं।इस प्रकार अहीर वंशीय व्रतपा बनाफर वंशीय राजा वासुमान की रानी बन जाती है।कुछ समय पश्चात राजा वासुमान को रानी व्रतपा से एक पुत्र की प्राप्ति होती है,जिसका नाम' दस्स राज रखा जाता हे। इसके अगले ही वर्ष एक और पुत्र उत्पन्न होता है,जिसका नाम वत्स राज रखा जाता है।
।। राजा परिमल की महोबा प्राप्ति ।।
अपने भाग्य को सराहते हुए राजा परिमल चंदेरी की शासन वव्यवस्था का निर्वाह अपने कनिष्ठ भ्राता भीष्म सिंह व अन्य अधिकारियों के साथ करते हुए, स्वयं के साथ-साथ प्रजा को भी सुख पहुँचाते हैं। एक दिन अपनी प्रिय रानी मल्हना का मलिन मुख देख कर राजा परिमल मल्हना से पूछते हैं,कि रानी क्या बात है ,आपके मुख पर विषाद की रेखाएं क्या कारण है ?क्या आप यहाँ प्रसन्न नहीं हैं ?क्या किसी से कोई विवाद ?अथवा किसी वस्तु की आवश्यकता है, निस्संकोच कहें ?विवाह पश्चात हमने आपको आपके योग्य कोई उपहार भी नहीं दिया ,निस्संदेह हमसे अपराध हुआ है ,कि हम आपके प्रति अपना उत्तरदायित्व भूल गए। ,यह तो हमारा कर्तव्य और आपका विशेष अधिकार है। राज-काज में इतने व्यस्त रहे की ,आपके प्रति अन्याय हो गया ,किन्तु अब नहीं ,हमारी आपसे प्रार्थना है ,कि हमारी हृदय स्वामिनी, महारानी मल्हना हमसे किसी उपहार की कामना करें , इस भूतल पर मानव सुलभ कुछ भी आपके लिए अलभ्य नहीं है। मल्हना कहती है कि ,नहीं स्वामी मुझे यहाँ किसी प्रकार का कष्ट नहीं है,इसके विपरीत मेरा जीवन तो आपसे विवाह करके धन्य हो गया। बस कुछ दिन से महोबे की याद सता रही है, स्मृति पटल पर महोबा महोबा ही छाया रहता है।रही उपहार की बात इसके लिए तो आपके सम्मुख में स्वयं को ही लज्जित अनुभव कर रही हूँ।हम दोनों बहनों का विवाह हुआ। एक बहन को तो राजकुमारिओं के अनुरूप,अथवा उससे भी बढ़ कर स्त्री धन (दहेज़)दिया गया और मेरे विवाह में.… । यह कह कर मल्हना का कंठ भर आता है। राजा परिमल मल्हना को इस अवस्था में देख कर व्यथित हो उठते हैं। राजा परिमल मल्हना से कहते हैं कि ,यह क्या आपकी आँखों में आंसू, आर्यावृत की सबसे धनी महारानी मात्र विवाह में स्त्री धन ना मिलने से इतनी व्यथित ?आप स्वयं जब चाहें अपने सम्मुख अपरिमित स्वर्ण उपस्थित कर सकती हैं ,फिर क्यों थोड़े से धन के लिए इतना दुःख। रानी मल्हना कहती है कि ,आप पुरुष हैं, राजा हैं, आप स्त्री धन का महत्व नहीं समझ पाएंगे। यह एक कन्या को उसके परिवार द्वारा उसके प्रति मोह,सम्मान ,स्नेह व आदर को दर्शाता है,यह मात्र उपहार या भेंट नहीं है ,यह उसे माता-पिता द्वारा दिए स्नेह व आशीर्वाद का प्रतिरूप होता है। प्रत्येक कन्या के माता-पिता उसके शैशव काल से ही, अपनी क्षमता के अनुसार, उसके विवाह के समय दिए जाने वाले उपहारों का संचय प्रारम्भ कर देते हैं ,क्या मैं यह मान लूँ की मेरे माता-पिता ने ऐसा नहीं किया होगा ? असंभव ,उन्होंने तो मुझे सबसे अधिक स्नेह-दुलार दिया ,फिर भी में स्त्री धन से वंचित ?एक राजा की राजकुमारी। संसार क्या कहेगा ? क्या मुझे अपने माता-पिता से यह पूछने का अधिकार नहीं कि, उन्होंने क्यों मुझे मेरे इस अधिकार से वंचित किया ?तब नहीं ,तो अब भी यह हो सकता है ,और स्वामी! आप से भी मुझे मन वांछित उपहार की प्राप्ति भी हो जाएगी। क्या में आपसे मन वांछित उपहार की कामना कर सकती हूँ ? राजा परिमल कहते हैं,कि प्रिये आप कह कर तो देखें। मैं प्राण -पण से आपकी इच्छा पूर्ण करूँगा। महारानी मल्हना कहती है,कि आप मुझे मेरा महोबा उपहार में दे दें।राजा परिमल मल्हना की बात सुन का अवाक् रह जाते हैं। मल्हना उन्हें अवाक् देख कहती है, कि क्या हुआ स्वामी ?मेने आपसे कुछ असंभव वस्तु मांग ली ?आप तो दुविधा में पड़ गए,निस्संदेह आप आर्यावृत के महा शक्ति शाली राजा हैं,इसमें ऐसा क्या है जो आपके लिए असंभव हो ?। फिर कुछ सोच कर कहती है,कि रहने दें ,मैने आपको व्यर्थ ही कष्ट दिया। राजा परिमल कहते हैं,कि नहीं प्रिये आपने तो ऐसा कुछ भी अप्रिय नहीं कहा,किंचित मैं तो यह सोच रहा था,कि तुम्हारे पिता मेरे लिए भी उतने ही आदरणीय हैं, जितने तुम्हारे लिए ,ऐसी परिस्थिति में महोबे पर आक्रमण करके उसे प्राप्त करना कहाँ तक उचित रहेगा। मैनें तो कभी भी राज्य लिप्सा के लिए युद्ध नहीं किया। वर्षों पूर्व भी मैनें आर्यावृत के लगभग सभी बलाभिमान में डूबे राजाओं को परास्त कर उनके राज्य को अपने राज्य में समाहित नहीं किया ,केवल उनके दर्प को चूर कर उनसे मैत्री स्थापित कर उन्हें छोड़ दिया। सीमाओं की दृष्टि में भले ही चंदेरी विस्तृत राज्य ना हो,किन्तु ऐश्वर्य में तो सर्वोपरि राज्य है ही।
रानी मल्हना कहती है कि ,मेरा आशय ऐश्वर्य,राज्य विस्तार आदि कुछ नहीं है ,मुझे तो अपना वह अधिकार चाहिए, जिससे मुझे आज तक वंचित रखा गया। मैं आपको भी किसी युद्ध के लिए उत्साहित अथवा उद्वेलित नहीं कर रही ,और ना ही यह मुझे अपनें अधिकार की प्राप्ति के लिए युद्ध की आवश्यकता अनुभव हो रही है। मेरी आपसे इतनी विनय है कि आप मेरी भावनाओं से मेरे पिता महाराज को पत्र द्वारा अवगत करा दें।अपनी सभी संतानों में वे मुझे विशेष स्नेह करते हैं ,मेरा हृदय कहता है, कि आपको सकारात्मक उत्तर ही प्राप्त होगा ,अर्थात वे मुझे सहर्ष ही महोबा दे देंगे। ये भी सम्भव है उन्हें ज्ञात ही न हो कि उनके पुत्र ,अर्थात मेरे भ्राता माहिल ने ,जो उनके गिरते स्वास्थ्य के कारण राज व्यवस्था का निर्वाह कर रहे हैं ,उन्होंने मुझे क्या ,और कैसा , स्त्री धन दिया है? आपके इस प्रयास से उन्हें भी ज्ञात हो जायेगा की, भ्राता माहिल नें मेरे साथ ऐसा अन्याय पूर्ण व्यवहार किया है। सोच कर ही मेरा हृदय खिन्न हो जाता है। महोबा मिलने पर ही मेरे हृदय का दाह शांत होगा,किन्तु भ्राता माहिल अवश्य पिता महाराज को ऐसा नहीं करने देंगे। वे अवश्य ही उन्हें रोकने का प्रयत्न करेंगे। मुझे अपने पिता से अत्यंत स्नेह है,उन्होंने भी मुझे अत्यंत स्नेह दिया है। अपनी अन्य संतानों से कहीं अधिक।उनकी सहृदय प्रजा पालक नीतियों ,उनकी भक्ति,उनके देश प्रेम उनकी राजनैतिक परिपक्वता व अन्य मानवीय गुणों का मेरे मन मस्तिष्क पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है ,संभवत;इसका कारण यह रहा हो की उनकी अन्य संतानों की अपेक्षा मैं उनके अत्यधिक निकट रही ,अथवा उन्होंने रहने दिया। उन्होंने कभी पुत्र पुत्री में भेद भाव नहीं किया।
आपके कोढ़ी रूप में मुझसे विवाह के लिए भ्राता माहिल नें न जानें क्या कुटिल जाल बिछाया हो ,उन्हें किस भ्रम में डाला होगा, ईश्वर ही जानता है,क्योंकि भ्राता माहिल मुझसे और पिता महाराज से सर्वथा विपरीत प्रवृति के हैं। इसी कारण मुझे पिता महाराज के विषय में अधिक चिंता है। भ्राता माहिल कुछ भी अनिष्ट कर सकते है.किन्तु अब मैं उनकी आश्रिता नहीं हूँ ,अबला नहीं हूँ। अब मैं आर्यव्रत् के संपन्न ,शक्तिशाली राज्य की राज महिषी हूँ। यदि मेरे पिता चाहेंगे तो भ्राता माहिल उनका कुछ भी अनिष्ट नहीं कर पायेंगें। मुझे महोबा अपनें अधिकार में चाहिए। इसका एक और कारण है ,मेरे विवाह में हुए अन्याय ,असंगति और अनर्थ का यदि पिता महाराज को ज्ञान होगा तो वे निश्चित ही लज्जित और हताश होंगे, और मुझे महोबा मिल जाने पर स्वयं को आत्म-ग्लानि और दुःख के स्थान पर सुखी और आनन्दित अनुभव करेंगे। राजा परिमल अगले ही दिन अपने मंत्री और सभासदों से विचार विमर्श कर राजा मालवंत को अपने विशेष दूत द्वारा पत्र भिजवाते हैं,जिसमें रानी मल्हना द्वारा व्यक्त समस्त विचारों का समावेश होता है। दूत को स्पष्ट निर्देश होता है ,कि पत्र केवल राजा मालवंत को ही दिया जाये, तथा इसका उत्तर भी साथ लाया जाये। दूत महोबे पहुँच राजा मालवंत को पत्र देता है। राजा मालवंत पत्र पढ़कर व्यथित हो जाते हैं तथा तुरंत ही माहिल को बुलवा कर उससे मल्हना के विवाह का पूर्ण विवरण जान कर दुखी हो जाते हैं।कुछ देर विचार मुद्रा में रहने के पश्चात माहिल को बताते हैं की,जिस कोढ़ी से तुमने मल्हना का विवाह किया था,वह कोई और नहीं चंदेरी के चंदेल वंशीय महाप्रतापी शक्तिशाली राजा परमर्दिदेव हैं। मेरे अहोभाग्य,जो मुझे उन जैसा जामाता मिला ,किन्तु तुमने मेरी सर्व गुण परम सुंदरी पुत्री को उसके अनुरूप स्त्री धन से वंचित रख कर उसके ही नहीं, हमारे प्रति भी अन्याय किया है। मुझे आज अपने उस निर्णय पर पश्चाताप हो रहा है,जब मैनें तुम्हारा महोबे के भावी उत्तराधिकारी के रूप में चयन किया। तुमसे कहीं योग्य तो मेरा कनिष्ठ पुत्र भूपति है। उसका अपनी बहनों के प्रति स्नेह,हमारे प्रति भक्ति भाव,महोबे के जन-जन के प्रति उसका आचरण उनके प्रति कर्तव्य भाव प्रशंसनीय है। और तुम अभी से राज-सत्ता के मद में चूर दिखते हो। तुम्हारे हाथों में महोबे का क्या भविष्य? होगा मेरे लिए चिंता का विषय है। माहिल कहता है कि पिता महाराज जितनी आप मल्हना की चिंता करते हैं ,एक भाई के नाते मैं भी उनके लिए उतना ही चिंतित रहता हूँ। वह तो उनका ही हठ था ,वे सिद्ध करना चाहती थीं कि ,कोई किसी का दिया नहीं खाता। आज उनकी देवी भक्ति ,अटूट आस्था नें यह सिद्ध कर दिया कि ,जीवन में भाग्य तथा भक्ति सर्वोपरि है। मैं भी स्वयं को ईश्वर का अनन्य भक्त मानता हूँ ,किन्तु बहन मल्हना की आस्था ,विश्वास के सामने नत-मस्तक हूँ ,अभीभूत हूँ। (माहिल कुटिल भाव से वातावरण तथा राजा मालवंत की अपने प्रति खिन्नता को अपने अनुकूल करने के लिए कहता है)पिता महाराज निःसंदेह बहन मल्हना नें अपने भाग्य और भक्ति की परीक्षा में स्वयं को सिद्ध कर संसार में आपको आपके समकक्ष राजाओं मेंअति प्रतिष्ठित कर दिया दिया है। मैं अपने गुप्तचरों के माध्यम से पूरे घटना क्रम,उनकी प्रत्येक परिस्थिति पर दृष्टि रखे हुए था,अन्ततः वह मेरी बहन हैं। मैं स्वयं आपको इस रहस्य एवं रोमांचकारी सत्य से अवगत करने ही जा रहा था ,किन्तु अब तो निश्चित ही इस आनन्द से वंचित रह गया। वस्तुतः मैं तो उनके अनुरूप दहेज़ की वव्यस्था में ही जुटा हुआ था। राजा मालवंत कहते हैं कि ,अब तुम्हें मल्हना के लिये कुछ भी निरर्थक उद्दोग करने की आवशयक्ता नहीँ ,मल्हना ने स्त्री धन स्वरुप मुझसे महोबा माँगा है,मैं उसे सहर्ष महोबा उपहार में दे दूंगा ,तुम मात्र इतना करो कि ,मेरी इस स्वीकारोक्ति की सूचना उन तक पत्र अथवा दूत द्वारा प्रेषित करवाने की समुचित वव्यवस्था करवा दो,जिससे वह राजा परिमल सहित यहाँ पधार कर, हमसे अपनी इच्छा अनुसार स्री धन प्राप्त कर, हमें अनुगृहीत कर , अपने ऋण से उऋण करे। राजा मालवंत की इच्छा जान कर माहिल अवाक् रह जाता है। वह राजा मालवंत से कहता है कि ,परंपरा अनुसार तो पुत्र ही पिता के उपरांत राज्य का अधिकारी होता है। आप कैसे मेरा प्रिय महोबा मल्हना को स्री धन स्वरुप उपहार में दे सकते हैं। राजा मालवंत कहते हैं कि ,यह स्थिति तो तुम्हारे ही कारण उत्पन्न हुई है ,यदि तुम उसी समय यथेष्ट दहेज दे देते ,तो आज मल्हना मूझसे महोबा न माँगती। अब जब मल्हना ने महोबा माँग लिया है तो सहज उसकी इच्छा पूर्ती होनी चाहिये, अन्यथा वह युद्ध के माध्यम से भी महोबा छीन सकती है ,तब हमारी स्थिति क्या होगी। इस आर्यावृत में राजा परिमल के समक्ष टिकने का साहस किसमें है। तदोपरांत उन्हें महाराज जयचंद का भी सहयोग प्राप्त है। ऐसी दशा में मल्हना को सहर्ष महोबा दे देना ही युक्ति सँगत है।
माहिल कहता है,कि यदि आपने मल्हना को महोबा देने का निश्चय कर ही लिया है.तो मैं इस आयोजन की व्यवस्था करता हूँ, तथा शुभ मुहूर्त निकलवा कर आपकों सूचित करता हूँ।माहिल राज पुरोहित से विचार कर एक अनिष्ट कारी मुहूर्त निकलवा कर चंदेरी से आये दूत को पत्र देकर, चंदेरी राजा परिमल व मल्हना को सूचित करवाता है।रानी मल्हना भी दूत द्वारा मनोवांच्छित सन्देश पाकर प्रसन्न तो होती है,किन्तु यह सब कुछ इतनी सहजता से हो रहा है,इसे लेकर शंकित हो जाती है। मल्हना राजा परिमल से इस पर विचार विमर्श करती है। राजा परिमल मल्हना की शंका के निवारण हेतु अपने राज पुरोहित चिंतामणी से भी महोबा के राज पुरोहित द्वारा सुझाए मुहूर्त के विषय में विचार करवाते हैं। राजा परिमल मल्हना की शंका उचित पाकर,मल्हना को सूचित करते हैं। रानी मल्हना राजा परिमल से कहतीं है ,की रहने देँ अब मुझे महोबा प्राप्ति की कोइ इच्छा नहीं है,मुझे ऐसी कोइ भी इच्छा नहीं है,जिसमें आपका लैश मात्र भी अहित हो। आप मेरे पिता महाराज को धन्यवाद सहित इस आशय की सूचना भिजवा दें। राजा परिमल,रानी मल्हना से कहते हैं कि,यह क्या ?आप इतनी हतोत्साहित क्यों हो रही हैं?महोबा आपको अवश्य प्राप्त होगा,यह राजा परिमल आपको वचन दे चुका है। मात्र मुहूर्त की बात से आपको अपने अधिकार से वंचित रहने देने का कोइ औचित्य नहीं है,और किंचित आपने मुझसे भी तो उपहार स्वरुप महोबा माँगा है?अब मात्र मुहूर्त को लेकर आपको इस उपहार से वंचित रहने दूँ,मुझे स्वीकार्य नहीं है,वैसे तो हम उन्हें अपना मुहूर्त भी सुझा तथा स्वीकार करा सकते हैं,किन्तु मैं ऐसा भी नहीं करूँगा।और पत्र में ऐसा और कुछ भी नहीं है जिससे अनिष्ट की कोइ भी संभावना हो। वीरों के लिए मुहूर्त मात्र एक औपचारिकता भर है,न कि किसी अभीष्ट की वर्जना। आप निश्चिन्त रहें,और महोबा जाकर अपने प्रिय जनों से मिलन की सुखद कल्पना करें। रानी मल्हना कहती है,कि मुझे पिता महाराज को लेकर कोइ शंका नहीँ है,किन्तु भ्राता माहिल के विषय में कोई कल्पना भी नहीं है,कि उनके मस्तिष्क में क्या योज़ना होगी,किन्तु यह निश्चित है कि महोबा प्राप्ति इतनी सरल -सहज नहीं होगी। राजा परिमल मल्हना के तर्क का अनुमोदन कर ,मल्हना को राज्याभिषेक के समय विशेष सतर्कता बरतने का आश्वासन देते हैं। नियत समय पर राजा परिमल महोबा के लिये प्रस्थान करते हैं। राजा परिमल अपने साथ अपनी सेना के २०० वीरों को अपने कनिष्ट भ्राता भीष्म के निर्देशन में अपनी सुरक्षा के लिये नियत करते हैं। कुछ विशेष टुकड़ियों को रानी मल्हना व अन्य रानियों की सुरक्षा में, तथा अन्य को इस पूरे दल-बल को घेर कर चलने का निर्देश देकर, महोबा के लिये प्रस्थान करते हैं।संध्या होते-होते वे महोबे की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं। एक उचित स्थान देख पूरा दल वहॉँ रात्रि विश्राम हेतु पड़ाव ड़ालता है। तम्बू ,छोलदारियां तन जातीं हैं। सारा दल अपनी-अपनी मर्यादा अनुसार अपने-अपने कार्यों में संलग्न हो जाता है। सैनिक अपनी-अपनी पारियों के अनुसार सुरक्षा का दायित्व निभाते हैं। भीष्म स्वयं प्रत्येक मोर्चे पर जाकर सुरक्षा की समीक्षा करते हैं। अकस्मात अर्ध रात्रि को आक्रमण होता है,किन्तु चंदेरी की सतर्क सेना इस आक्रमण को पुर्ण रुप से विफल कर देती है। आक्रमणकारियों में कुछ तो प्राण गवांते हैं,अन्य भाग कर अपने प्राणोँ की रक्षा करते हैं। वे घायलों को भी अपने साथ ले जाते हैं। राजा परिमल व रानी मल्हना को इस आक्रमण की सूचना मिलती है। मल्हना कहती है कि,यह अवश्य ही भ्राता माहिल का कार्य है। हमें और सतर्क रहना होगा। राजा परिमल कहते हैं कि,आप निश्चिंत रहें। राजमहल से पांच कोस की दूरी पर पुनः पड़ाव डाल कर राजा परिमल दूत द्वारा अपने आगमन की सूचना राजा मालवंत को भिजवाते हैं। राजा मालवंत समस्त परिवार व सभासदों सहित आकर राजा परिमल व मल्हना का स्वागत करते हैं। समूचा महोबा व परिवार मल्हना से मिल कर भाव-विह्वल हो जाता है। अगले दिन प्रातः काल में राज्याभिषेक का मुहूर्त होता है। राजा परिमल सिंहासन पर विराज मान होते हैं। माहिल उच्च स्वर में आक्रमण उच्चारण करता है। दरबार मैं छद्म वेश में छिपे माहिल के सैनिक राजा परिमल पर वेग से आक्रमण के लिये उद्द्यत होते हैं ,किन्तु उन्हें चंदेरी के वीर मार्ग में ही रोक कर कुछ का प्राणांत कर देते हैं,तथा कुछ बंदी बना लिये जाते हैं। माहिल को भीष्म बंदी बना बेड़ियोँ में जकड़ देते हैं। माहिल हँसने लगता है। उसे ऐसा करते देख राजा परिमल आश्चर्य चकित हो पूछते हैं। माहिल कहता है कि,वह तो मात्र परम्परा का निर्वाह कर रहा था। परिस्थिति वश विवाह के समय ऐसा नहीं हो पाया, तो अब ही सही, आप की वीरता को परखने का इससे उचित अवसर और कब मिलता।(उस समय की प्रथा अनुसार कन्या के विवाह के समय वर एवं वधू पक्ष में युद्ध होता था। यदि वर पक्ष हार जाता तो,उसे अपना सा मुंह लेकर खाली हाथ लौट जाना पड़ता। और यदि वह जीत जाता तो कन्या पक्ष वर पक्ष की वीरता की प्रशंसा करते हुए विवाह समपन्न हो जाने देता। आज भी कई समुदायों में वर घोड़ी पर बैठ कर,वधु पक्ष के द्वार पर पहुँच कर हवा में तलवार चला कर उस परंपरा क़ी औपचारिकता निभाता है ) माहिल की बात सुन कर राजा परिमल भीष्म से माहिल को छोड़ने की कहते हैं। माहिल कहता है.की महाराज मेरी एक और बुरी आदत है,चुगली की। यदि भविष्य में कभी मुझसे ऐसा अपराध हो जाया करे, तो उसे भी क्षमा कर दिया करें। राजा परिमल माहिल की चुग़ली को भविष्य में भी क्षमा करते रहने का वचन देते हैं। राजा परिमल मल्हना के कहने से राजा मालवंत को उरई व भूपती को जगनेरी दे देते हैं।चंदेरी की व्यवस्था का भार अपने भ्राता भीष्म को सौंप देते हैं।किन्तु माहिल अपनी इस विवशता तथा अपने प्रिय महोबे के छिन जाने से व्यथित हो कर,साम,दाम,दण्ड,भेद,ऐसे,वैसे जैसे तैसे भी हो महोबा प्राप्ति की सौगंध उठाता है।कपटी माहिल रिश्ते-नाते सामाजिक व्यवहार को केवल स्वार्थ पूर्ती के उपकरण मानता है। माहिल उसी क्षण से अपनी योजनाएं बनाने लगता है। जिसके भविष्य में विनाशकारी परिणाम निकलते हैं। ।। ताल्हा सैय्यद का गौरदेश छोड़ना ।।
माहिल कहता है,कि यदि आपने मल्हना को महोबा देने का निश्चय कर ही लिया है.तो मैं इस आयोजन की व्यवस्था करता हूँ, तथा शुभ मुहूर्त निकलवा कर आपकों सूचित करता हूँ।माहिल राज पुरोहित से विचार कर एक अनिष्ट कारी मुहूर्त निकलवा कर चंदेरी से आये दूत को पत्र देकर, चंदेरी राजा परिमल व मल्हना को सूचित करवाता है।रानी मल्हना भी दूत द्वारा मनोवांच्छित सन्देश पाकर प्रसन्न तो होती है,किन्तु यह सब कुछ इतनी सहजता से हो रहा है,इसे लेकर शंकित हो जाती है। मल्हना राजा परिमल से इस पर विचार विमर्श करती है। राजा परिमल मल्हना की शंका के निवारण हेतु अपने राज पुरोहित चिंतामणी से भी महोबा के राज पुरोहित द्वारा सुझाए मुहूर्त के विषय में विचार करवाते हैं। राजा परिमल मल्हना की शंका उचित पाकर,मल्हना को सूचित करते हैं। रानी मल्हना राजा परिमल से कहतीं है ,की रहने देँ अब मुझे महोबा प्राप्ति की कोइ इच्छा नहीं है,मुझे ऐसी कोइ भी इच्छा नहीं है,जिसमें आपका लैश मात्र भी अहित हो। आप मेरे पिता महाराज को धन्यवाद सहित इस आशय की सूचना भिजवा दें। राजा परिमल,रानी मल्हना से कहते हैं कि,यह क्या ?आप इतनी हतोत्साहित क्यों हो रही हैं?महोबा आपको अवश्य प्राप्त होगा,यह राजा परिमल आपको वचन दे चुका है। मात्र मुहूर्त की बात से आपको अपने अधिकार से वंचित रहने देने का कोइ औचित्य नहीं है,और किंचित आपने मुझसे भी तो उपहार स्वरुप महोबा माँगा है?अब मात्र मुहूर्त को लेकर आपको इस उपहार से वंचित रहने दूँ,मुझे स्वीकार्य नहीं है,वैसे तो हम उन्हें अपना मुहूर्त भी सुझा तथा स्वीकार करा सकते हैं,किन्तु मैं ऐसा भी नहीं करूँगा।और पत्र में ऐसा और कुछ भी नहीं है जिससे अनिष्ट की कोइ भी संभावना हो। वीरों के लिए मुहूर्त मात्र एक औपचारिकता भर है,न कि किसी अभीष्ट की वर्जना। आप निश्चिन्त रहें,और महोबा जाकर अपने प्रिय जनों से मिलन की सुखद कल्पना करें। रानी मल्हना कहती है,कि मुझे पिता महाराज को लेकर कोइ शंका नहीँ है,किन्तु भ्राता माहिल के विषय में कोई कल्पना भी नहीं है,कि उनके मस्तिष्क में क्या योज़ना होगी,किन्तु यह निश्चित है कि महोबा प्राप्ति इतनी सरल -सहज नहीं होगी। राजा परिमल मल्हना के तर्क का अनुमोदन कर ,मल्हना को राज्याभिषेक के समय विशेष सतर्कता बरतने का आश्वासन देते हैं। नियत समय पर राजा परिमल महोबा के लिये प्रस्थान करते हैं। राजा परिमल अपने साथ अपनी सेना के २०० वीरों को अपने कनिष्ट भ्राता भीष्म के निर्देशन में अपनी सुरक्षा के लिये नियत करते हैं। कुछ विशेष टुकड़ियों को रानी मल्हना व अन्य रानियों की सुरक्षा में, तथा अन्य को इस पूरे दल-बल को घेर कर चलने का निर्देश देकर, महोबा के लिये प्रस्थान करते हैं।संध्या होते-होते वे महोबे की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं। एक उचित स्थान देख पूरा दल वहॉँ रात्रि विश्राम हेतु पड़ाव ड़ालता है। तम्बू ,छोलदारियां तन जातीं हैं। सारा दल अपनी-अपनी मर्यादा अनुसार अपने-अपने कार्यों में संलग्न हो जाता है। सैनिक अपनी-अपनी पारियों के अनुसार सुरक्षा का दायित्व निभाते हैं। भीष्म स्वयं प्रत्येक मोर्चे पर जाकर सुरक्षा की समीक्षा करते हैं। अकस्मात अर्ध रात्रि को आक्रमण होता है,किन्तु चंदेरी की सतर्क सेना इस आक्रमण को पुर्ण रुप से विफल कर देती है। आक्रमणकारियों में कुछ तो प्राण गवांते हैं,अन्य भाग कर अपने प्राणोँ की रक्षा करते हैं। वे घायलों को भी अपने साथ ले जाते हैं। राजा परिमल व रानी मल्हना को इस आक्रमण की सूचना मिलती है। मल्हना कहती है कि,यह अवश्य ही भ्राता माहिल का कार्य है। हमें और सतर्क रहना होगा। राजा परिमल कहते हैं कि,आप निश्चिंत रहें। राजमहल से पांच कोस की दूरी पर पुनः पड़ाव डाल कर राजा परिमल दूत द्वारा अपने आगमन की सूचना राजा मालवंत को भिजवाते हैं। राजा मालवंत समस्त परिवार व सभासदों सहित आकर राजा परिमल व मल्हना का स्वागत करते हैं। समूचा महोबा व परिवार मल्हना से मिल कर भाव-विह्वल हो जाता है। अगले दिन प्रातः काल में राज्याभिषेक का मुहूर्त होता है। राजा परिमल सिंहासन पर विराज मान होते हैं। माहिल उच्च स्वर में आक्रमण उच्चारण करता है। दरबार मैं छद्म वेश में छिपे माहिल के सैनिक राजा परिमल पर वेग से आक्रमण के लिये उद्द्यत होते हैं ,किन्तु उन्हें चंदेरी के वीर मार्ग में ही रोक कर कुछ का प्राणांत कर देते हैं,तथा कुछ बंदी बना लिये जाते हैं। माहिल को भीष्म बंदी बना बेड़ियोँ में जकड़ देते हैं। माहिल हँसने लगता है। उसे ऐसा करते देख राजा परिमल आश्चर्य चकित हो पूछते हैं। माहिल कहता है कि,वह तो मात्र परम्परा का निर्वाह कर रहा था। परिस्थिति वश विवाह के समय ऐसा नहीं हो पाया, तो अब ही सही, आप की वीरता को परखने का इससे उचित अवसर और कब मिलता।(उस समय की प्रथा अनुसार कन्या के विवाह के समय वर एवं वधू पक्ष में युद्ध होता था। यदि वर पक्ष हार जाता तो,उसे अपना सा मुंह लेकर खाली हाथ लौट जाना पड़ता। और यदि वह जीत जाता तो कन्या पक्ष वर पक्ष की वीरता की प्रशंसा करते हुए विवाह समपन्न हो जाने देता। आज भी कई समुदायों में वर घोड़ी पर बैठ कर,वधु पक्ष के द्वार पर पहुँच कर हवा में तलवार चला कर उस परंपरा क़ी औपचारिकता निभाता है ) माहिल की बात सुन कर राजा परिमल भीष्म से माहिल को छोड़ने की कहते हैं। माहिल कहता है.की महाराज मेरी एक और बुरी आदत है,चुगली की। यदि भविष्य में कभी मुझसे ऐसा अपराध हो जाया करे, तो उसे भी क्षमा कर दिया करें। राजा परिमल माहिल की चुग़ली को भविष्य में भी क्षमा करते रहने का वचन देते हैं। राजा परिमल मल्हना के कहने से राजा मालवंत को उरई व भूपती को जगनेरी दे देते हैं।चंदेरी की व्यवस्था का भार अपने भ्राता भीष्म को सौंप देते हैं।किन्तु माहिल अपनी इस विवशता तथा अपने प्रिय महोबे के छिन जाने से व्यथित हो कर,साम,दाम,दण्ड,भेद,ऐसे,वैसे जैसे तैसे भी हो महोबा प्राप्ति की सौगंध उठाता है।कपटी माहिल रिश्ते-नाते सामाजिक व्यवहार को केवल स्वार्थ पूर्ती के उपकरण मानता है। माहिल उसी क्षण से अपनी योजनाएं बनाने लगता है। जिसके भविष्य में विनाशकारी परिणाम निकलते हैं। ।। ताल्हा सैय्यद का गौरदेश छोड़ना ।।
गौर देश में वहां के बादशाह की मृत्यु के उपरांत सिंहासन पर आसीन करने के लिए सभासद व अन्य वरिष्ठ नागरिकों कि इक्छा बादशाह के वरिष्ठ पुत्र राजकुमार मेहरुद्दीन के लिए होती है,किन्तु छोटा राजकुमार शहाबुद्दीन,जो अत्यंत लम्पट धूर्त व चरित्र हीन है, येन-केन प्रकरेण स्वयं सिंहासन पर आसीन होना चाहता है। राजकुमार मेहरुद्दीन ईश्वर वादी सच्चरित्र, सह्रदय व दयालु प्रवृति का है।राजकुमार मेहरुद्दीन अपने सौतेले भाई शहाबुद्दीन की प्रवृति से भली-भांति परिचित था। राजकुमार मेहरुद्दीन नहीं चाहता था कि सिंहासन के लिए व्यर्थ रक्त पात हो,अतः वह स्वेच्छा से शहाबुद्दीन के मार्ग से हट जाता है। शहाबुद्दीन गौर का सुल्तान तो बन जाता है,किन्तु उसे मेहरुद्दीन से सदा एक भय लगा रहता है। इस के लिए शहाबुद्दीन मेहरुद्दीन को सेनापति के पद पर आसीन कर अपनी सुरक्षा का भार भी उस डाल कर निश्चिंत होजाता है,क्योंकि वो जानता था कि मेहरुद्दीन कभी भी विश्वासघात नहीं करेगा। अब वह निश्चिंत हो कर मदिरा व वासना में डूब जाता है। मेहरुद्दीन उसे बहुत समझाता है , कि सुल्तान को यह सब शोभा नहीं देता। किन्तु शहाबुद्दीन पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। शहाबुद्दीन सिंध देश की राजकुमारी मृग नयनी की सुंदरता की प्रशंसा सुन कर अपने भाई व सेनापति मेहरुद्दीन से मृग नयनी को पाने की अपनी इक्षा व्यक्त करता है। मेहरुद्दीन उसे समझाता है की स्त्रियों के प्रति सदेव आदर भाव रखना चाहिए। आपको शादी करके इस घृणित व्यसन से सदा के लिए मुक्त हो जाना चाहिए।शहाबुद्दीन कहता है, कि बस इस बार यह शाहजादी मुझे मिल जाये, फिर में इससे शादी कर के सदा के लिए इन बुरी आदतों को छोड़ दूंगा। मेहरुद्दीन को विश्वास दिलाने के लिए शहाबुद्दीन बार-बार कसमें खाता है। हार कर मेहरुद्दीन सिंध के राजा के पास राजकुमारी मृग नयनी व शहाबुद्दीन के विवाह का प्रस्ताव भिजवाता है। सिंध का राजा मेहरुद्दीन के इस प्रस्ताव को नकार देता है। अब युद्ध अवश्यम्भावी था। गौर की सेनाएं सिंध की राजधानी को घेर लेतीं हैं।राजकुमारी मृग नयनी अपनी प्रजा व राज्य को व्यर्थ रक्त-पात से रक्षा हेतू एक कड़ा निर्णय लेती है।एक रात्रि वह वेश बदल कर मेहरुद्दीन के खेमे में पहुँच जाती है।वह मेहरुद्दीन कि प्रवृति से परिचित होती है। मेहरुद्दीन मृग नयनी को विश्वास दिलाता है, कि अब जब आप आ ही गयीं हैं, तो युद्ध का तो प्रश्न ही नहीं है,मैं जाकर सुल्तान से सेना वापसी के लिए कहता हूँ। शहाबुद्दीन को जब पता चलता है,कि मृग नयनी तो स्वयं ही आ गयी है,तो वह स्त्री लोलुप उसे पाने के लिए उतावला हो उठता है।मेहरुद्दीन सुल्तान से कहता है,कि पहले निकाह उसके बाद ही आप मृग नयनी से मिल सकेंगे, आखिर वो गौर की होने वाली मलिका हैं,उनका एहतराम (इज़्ज़त )किया जाये। लिहाज़ा फौजों की वापसी का हुक्म फ़रमाया जाय। शहाबुद्दीन मन मारकर रह जाता है,उसने सिंध के ऐश्वर्य के बारे में बहुत कुछ सुन रखा होता है,वह उसे जी भरकर लूटना चाहता है। वह कहता है,कि ठीक है आप फ़ौरन राजकुमारी के साथ कुछ सैनिकों को लेकर गौर पहुंचें और हमारे निकाह का इंतजाम करें।मेहरुद्दीन उसकी चाल को नहीं समझ पाता। वह सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ मृग नयनी को लेकर गौर चला जाता है। मेहरुद्दीन के पीठ फेरते ही शहाबुद्दीन की सेनाएं सिंध में घुसकर कत्ले-आम मचा देती हैं। शहाबुद्दीन जी भरकर सिंध को लूटता है। शहाबुद्दीन के इस विश्वासघात की सूचना जब मेहरुद्दीन तथा मृग नयनी को मिलती है तो उन्हें बहुत दुःख पहुंचता है। मेहरुद्दीन अपने एक विश्वास पात्र सरदार मीर सैय्यद के साथ मिलकर शहाबुद्दीन के प्रति विद्रोह कर देता है। शहाबुद्दीन को भी इस विद्रोह की खबर लगती है। वह भी तुरंत सेना सहित विद्रोह को कुचलने के लिए गौर पंहुच जाता है। विद्रोहियों और शहाबुद्दीन की सेनाओं में युद्ध छिड़ जाता है। कभी एक पक्ष हावी होता, तो कभी दूसरा। शहाबुद्दीन के पास सिंध से लूटा हुआ धन प्रचूर मात्रा में होता है। वह उस धन का उपयोग और सेना को संगठित करने में करता है।अब शहाबुद्दीन की शक्ति बहुत बढ़ जाती है। मीर सैय्यद समझ जाता है कि ,अब युद्ध में विजय असंभव है, कहीं ऐसा न हो की शहाबुद्दीन मेरे परिवार को बंदी बनाकर मुझे समर्पण के लिए विवश करदे,ऐसी स्थिति में परिवार सहित मेरी हत्या भी निश्चित है। मीर सैय्यद अपने साथियों से विचार विमर्श करता है। इधर मीर सैय्यद विचार विमर्श कर रहा होता है,उधर शहाबुद्दीन मीर सैय्यद को परिवार सहित बंदी बनाने का आदेश जारी कर देता है,किन्तु जब तक शहाबुद्दीन के सैनिक उस तक पँहुचें, मीर सैय्यद अपने साथियों की सहायता से आधी रात को परिवार सहित भाग निकलता है।भोर होते ही शहाबुद्दीन को पता चलता है,वह अपने सैनिक मीर सैय्यद को पकड़ने के लिए भेजता है,किन्तु तब तक मीर सैय्यद परिवार सहित बहुत दूर निकल चुका होता है। ।।ताल्हा सैय्यद , दस्स राज ववत्सराज मिलन।।
बक्सर के राजा वासुमान की मृत्यु के पश्चात ,बक्सर राज्य कि व्यव्स्था का भार दस्स राज व वत्स राज के किशोर कंधो पर आ जाता है।दोनों भाई बड़ी दक्षता के साथ इस उत्तरदायित्व का निर्वाह करने लगते हैं। मीर सैय्यद छुपता-छुपाता शहाबुद्दीन के प्रभाव क्षेत्र से दूर, सुरक्षित स्थान को खोजता हुआ भारत वर्ष में प्रवेश कर जाता है। वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो जाती है।मीर सैय्यद का बड़ा पुत्र रल्हन का स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगता है। मीर सैय्यद कई वैद्य-हकीमों से उसका उपचार कराता है , किन्तु कोइ लाभ नहीं होता। एक रात्रि को रल्हन इस संसार विदा हो जाता है।मीर सैय्यद पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है। साथ लाया धन भी समाप्त हो चुका होता है। जीवन और कठिन हो जाता है। मीर सैय्यद राजा जयचंद के बारे में जान कर ,कि अवश्य ही जयचंद की सेना में उसके योग्य कोई ना कोई काम मिल ही जाएगा। मीर सैय्यद परिवार सहित कन्नौज चल देता है। कन्नौज तक की लम्बी यात्रा,धन हीनता ऊपर से युवा पुत्र क़ी मृत्यु का शोक मीर सैय्यद का मनोबल टूट चुका होता है.,नित्य का ख़ान -पान ,बड़ा परिवार ,मीर सैय्यद एक -एक कर अपने प्रिय घोड़ों को औनें -पौनें बेंचकर, किसी तरह दैनिक व्यय कीं पूर्ती करता हुआ कन्नौज की दिशा में बढ़ता है। किन्तु भाग्य में तो कुछ और ही बदा था। मीर सैय्यद का स्वास्थय अक्समात बिगड़ जाता है। पूरे परिवार की आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है। छोटा पुत्र ताल्हा पिता के उपचार के लिये कई वैध्य -हकीमों को लेकर आता है,किन्तु जब बुरा समय आता है, तो कुछ भी अच्छा नहीं होता। उफने हुए नदी -नाले ,मुसला धार वर्षा ,निराश्रय परदेस में कोइ समीपी भी,नहीं और परिवार के मुखिया की यह दशा। क्यों कभी-कभी ईश्वर भी इतना कठोर हो जाता है। ताल्हा की गोद में सिर टिकाये मीर सैय्यद की दृष्टि अनन्त में टिक जाती है,आत्मा अनन्त में विलीन हो जाती है। पखेरू पिंजरा छोड़ कर उड़ जाता है। मीर सैय्यद सब दुखों से स्वतन्त्र हो जाता है। परिवार में चीख -पुकार मच जाती है। कौन किसको ढांढस बंधाये,जिस खंडहर में टिके थे ,उसके आस-पास के लोग आकर उनकी सहायता करते हैं।बेबस लाचार ताल्हा सैय्यद को ढाँढस बंधाते हैं। वे ग्राम वासी ताल्हा सैय्यद को परिवार सहित एक सुरक्षित स्थान पर ठहराते हैं,जो वर्षा ,धूप व जंगली जानवरों से सुरक्षित था। परदेश में अपरिचित अनजाने लोगों में निःस्वार्थ इतनी सहायता व सहानुभूति देख कर ताल्हा सैय्यद का हृद्य द्रवित हो जाता है। पिता के मृत्यु उपरांत किये जाने वाले संस्कारों के व्यय को वहन करनेके लिये, ताल्हा को अपने पिता का प्रिय अश्व " मेहरबान"को बेचना पड़ जाता है। कितनी लाचारी बेबसी का अनुभव हुआ जब मेहरबान को किसी और को सौंपा ,कितने भारी मन से अपने हाथों से किसी और को लगाम सौंपी,किन्तु मैहरबान किसी और के साथ जाने को राज़ी नहीं होता। जैसे ही वे उसे खींचने के लिये चाबुक मारने का यत्न करतें हैं ,ताल्हा का एक हाथ उस चाबुक और दूसरा हाथ स्वतः अपनी तलवार पर चला जाता है।ख़बरदार।।।।।का शब्द घोष वातावरण में गूँज उठता है। तुरंत ताल्हा को अपनी भूल का अनुभव होता है,ताल्हा कहता है,''मुआफ किजिएगा हम इन्हें अपनी औलाद से भी अज़ीज़ मानते हैं,अपनी नज़रों के रूबरु इनसे ऐसा सुलूक हम बर्दाश्त नहीँ कर पाएंगे,लिहाज़ा आप से गुज़ारिश है, कि हमारे सामने मेरे बच्चे पर हाथ ना उठायें,हम इसे समझाते हैं। ताल्हा मेहरबान से कहते हैं,"मेरे बच्चे तकदीर में हमारा तुम्हारा साथ बस यहीं तक था,आज से ये तुम्हारे नये मालिक हुए,इनकी भी उसी तरह ख़िदमत करना जैसी हमारी की। जाओ मेरे बच्चे ख़ुदा हाफ़िज़। ताल्हा मेहरबान के गले लग रोने लगता है,उसके गालों को चूम,पीठ को सहला कर खरीद दार से कहता है ,''अब आप बराए मेहरबानी फौरन मेहरबान को हमारी निगाहों से दूर ले जाएँ,कहीं ऐसा ना हो कि हम अपना फ़ैसला बदल देँ ,जाइए ले जाइए। मेहरबान जैसे सब कुछ समझ गया,सब कुछ जान गया,बस एक बार हिनहिना कर,आँखोँ में आंसू भर गर्दन झुकाये चुप चाप अपने नये मालिक के साथ चल देता है। ताल्हा उसे डबडबाई आँखों से कुछ देर तक अपने से दूर जाता देखता है,मेहरबान भी एक बार गर्दन मोड़ कर ताल्हा को देखता है। ताल्हा मुड़ कर तेजी से अपने डेरे पर आकर फूट-फूट कर रोने लगता है। उसे ऐसा करते देख उसकी मां तुरन्त उसके पास आकर सिर पर हाथ फेरते हुए पूछतीं हैं,अब क्या हुआ मेरे बच्चे ?ताल्हा रुंधे गले से केवल इतना ही कह पाता है ,"अम्मी मेहरबान ''। अम्मी भी'' मेहरबान मेरा बच्चा''कह कर रोने लगतीं हैं। तत्त पश्चात तुरंत संयत होकर कहती हैं, कोइ बात नहीं मेरे बच्चे,ग़म ना कर बस समझ ले तेरे भाईं और अब्बू की मानिन्द उसे भी तक़दीर नें हमसे जुदा कर दिया ,हौंसला रख मेरे बच्चे,बहादुर यूँ रोया नहीं करते ।चल उठ और अपने फ़र्ज़ों को अंजाम दे,अब तुझे ही तो सब देखना है। ताल्हा अपने आंसू पौंछते हुए कहता है कि,अम्मी मेहरबान को देखकर यूँ लगता था मानो अब्बू उस पर सवार होंं। अम्मी कहती हैं ,में जानती हूँ मेरे बच्चे तू बहुत ही नर्म दिल और जज़बाती है,लेकिन ज़िन्दगी जज़्बातों के ज़ेरे साया गुज़र नहीँ होती। तेरी ज़िन्दगी की असल जंग तो अब शुरु हुई है,जिसे तूने हर हाल में फतह करना है। हम सबको तुझ पर पूरा यक़ीन है,मेरी और हम सबकी दुआएं तेरे साथ हैं। ताल्हा अपनी अम्मी की कदम बोसी करता है। अम्मी कहतीहैं,उठ और अपने फ़र्ज़ों से रूबरू होने की तैयारी कर,तेरे अब्बा जो काम छोड़ गये हैं, तुझे उन्हें मुक़म्मिल करना है। ताल्हा सैय्यद अपने पिता के मृत्यु उपरांत होने वाले रीति -रिवाज़ों को सम्पन्न करता है। कुछ दिन आस -पास अपने योग्य व्यवसाय की खोज करता है,किन्तु निराशा हाथ लगती है। वह भी अपने पिता की इक्षा अनुसार राजा जयचंद से मिलने का निर्णय करता है। इस संदर्भ में वह अपनी माँ से भी विचार-विमर्श करता है। माँ भी उसे ऐसा ही करने का परामर्श देती है। अगले ही दिन ताल्हा ग्राम-वासियों को उनकी सहायता व सद्भावना का धन्यवाद कर, अपने कुटुम्ब और सामान इत्यादि को घोड़ों पर लाद कर कन्नौज क़ी दिशा मैं चल पड़ता है। रात एक सराय में गुज़ार कर, भोर होते ही यात्रा पुनः प्रारम्भ हो जाती है।संध्या झुट पुटाने लगती है। अकस्मात एक दस्यु दल इनके पीछे पड़ जाता है। ताल्हा सैय्यद अपने कुटुम्ब को आगे कर ,तेजी से घोड़े दौड़ाने का आदेश देता है, व स्वयं अपने दल के पीछे रह कर दस्यु दल से अपने कुटुम्ब की रक्षा करने का निर्णय लेता है। ताल्हा सैय्यद अकेला, और दस्यु दल संख्या में कहीं अधिक।ताल्हा सैय्यद अवसर देख एक -एक से दौड़ते -दौड़ते ही खड्ग युद्ध करने लगता है। इस प्रकार ताल्हा सैय्यद दस्यु दल के कुछ सदस्यों को मार गिराता है,किन्तु स्वयं भी बुरी तरह घायल हो जाता है। दस्यु सरदार दल के अन्य सदस्यों से आगे बढ़ कर ताल्हा सैय्यद के कुटुम्बी जनों से घोड़े छीन लेने का आदेश देता है,व स्वयं ताल्हा पर आक्रमण कर देता है।लड़ते- चलते,लड़ते -चलते सब गंगा के तट पर पहुँच जाते हैं। दस्यु दल के कुछ सदस्य बच्चों व स्त्रियों से घोड़े छीनने में सफल हो जाते हैं। स्त्रियां अपनी शील कि ऱक्षा हेतु उफनती गंगा में कूद पड़ती हैं। चीख -पुकार मच जाती है।
चीख-पुकार सुन, पास ही में घोड़ों पर सवार दो नवयुवकों का ध्यानउस तरफ जाता है,वे तुरन्त वहाँ पहुंच जाते हैं। उनमें से एक तुरंत गंगा नदी मैं डूबते हुओं को बचाने के लिए कूद पड़ता है, तथा दूसरा ताल्हा सैय्यद की रक्षार्थ दस्यु सरदार से भीड़ जाता है। ताल्हा सैय्यद सहायता पाकर दूने उत्साह से लड़नें लगता है।अब दल के दूसरे सदस्य भी आकर इन दोनों पर टूट पड़ते हैं। नदी में कूदने वाला नव युवक ,नदी मैं डूबते ताल्हा सैय्यद के परिवार के सदस्यों की प्राण रक्षा करने में सफल हो जाता है। अब वह भी दस्यु-दल से भिड़ जाता है,अकस्मात वह देखता है कि ,ताल्हा सैय्यद निढाल हो कर गिर पड़ता है,और दस्यु सरदार ताल्हा सैय्यद पर अन्तिम वार करने ही जा रहा है,वह विद्दुत गति से लपक कर दस्यु सरदार की खड्ग का वार अपनीं तलवार पर झेलकर,बाज़ी उलट देता है। ताल्हा सैय्यद को गिरा देख कर,परिवार में पुनः चीख -पुकार मच जाती है। दोनों नवयुवक अब अप्रत्याशित गति से दस्यु दल का सफाया करने लगतेहैं। कुछ ही क्षणों में समूचा दस्यु दल समाप्त हो जाता है। दोनों ताल्हा सैय्यद के समीप जाकर उसकी दशा का निरीक्षण करते हैं। रक्त से लथ -पथ ताल्हा सैय्यद की सांस चलती देख,एक नवयुवक तुरन्त घोड़े पर सवार हो,एड़ लगा वहॉं से चला जाता है,दूसरा ताल्हा सैय्यद के परिवार के पास आकर उन्हें ढांढ़स बंधाता है,सांत्वना देता है। इतने में कुछ पालकियां व कुछ लोगों के साथ, वह पहला नवयुवक लौट आता है।रक्त-रंजित घायल चेतना शून्य ताल्हा सैय्यद को एक पालकी में व स्त्रियोँ बच्चोँ को दूसरी पालकियों मेँ बिठाकर अपने किले में ले आते हैं। वहां पहले से ही उपस्थित वैद्य -चिकित्सक ताल्हा सैय्यद के उपचार में जुट जाते हैं।नवयुवकों के आदेश पर परिवार के सदस्यों की रहने व ख़ाने-पीने की समुचित व्यवस्था की जाती है।
दोनों नवयुवक ताल्हा सैय्यद की स्थिति व परिवार की व्यवस्था की समीक्षा के हेतू दिन में कई बार फेरे लगाते हैं। कई दिन तक ताल्हा सैय्यद की स्थिति जस की तस रहती है।तत्पश्चात वैद्य-चिकित्सकों के अनथक प्रयासों से ताल्हा सैय्यद की देह मेँ शनेःशनेः शक्ति का संचार होने लगता है। अंततः एक माह पश्चात एक कराह के साथ ताल्हा सैय्यद अपने नेत्र खोल देता है।परिवार में हर्षो-उल्लास छा जाता है।पूरा परिवार ताल्हा सैय्यद के इर्द-गिर्द इकठ्ठा हो जाता है। अपने परिवार को सकुशल समक्ष देख कर ताल्हा सैय्यद की आँखें छल-छला आती हैं। माँ तुरंत ताल्हा सैय्यद की आँखेँ पौंछते हुए कहती हैं कि,अल्लाह का लाख-लाख शुक्र है मेरे बच्चे जो आज तुम्हें होश आ गया,अलबत्ता हम तो हालात से बेज़ार हो चुके थे,हिम्मत हार चुके थे,लेकिन वो बड़ा कारसाज़ है,उसने हम मज़लूमो की दुआयें क़ुबूल कर,हमारी हिफाज़त के लिये ऐन वक्त पर ना जानें कहां से दो फरिश्तों को भेज तुम्हारी जान बचाई ,तुम्हारे इलाज़, पूरे कुनबे के लिए सिर पर छत और रोटी के साथ-साथ हर जरुरत का मुकम्मिल इंतज़ाम किया।आज उस खुदा की रहमत पर हमारा यकीन दोबाला हो गया।आज हम सब शुक्राने की नमाज़ अदा करेंगे।ताल्हा सैय्यद कहता हैकि ,अम्मी मैं उन फरिश्तों के दीदार करना चाहता हूँ। अम्मी कहती हैं,बिलकुल मेरे बच्चे ,वो दोनोँ भी तुम्हारी सेहत के लिये ख़ास फिक्रमंद हैं,तुम्हारे होश मैं आने की ख़बर मिलते ही वे दोनों दौड़े चले आएँगे।ताल्हा सैय्यद और बातें करना चाहता है,लेकिन पास खड़ा वैद्य कहता है कि,अब आप अधिक न बोलें,बोलना आपके स्वास्थय के लिये हित कर नहीँ है। वैद्य अम्मी से भी कहता है कि,अब आप भी आराम करें।
संध्या समय जैसे ही उन दोनों नवयुवकों को ताल्हा सैय्यद के चैतन्य होने का समाचार मिलता है। वे तुरंत ही ताल्हा सैय्यद के पास पहुंचते हैं। ताल्हा सैय्यद की अम्मी ताल्हा से कहतीं है,कि बेटे यही वे दोनोँ फ़रिश्ते हैं,जिनका मैनें तुमसे ज़िक़्र किया था। ताल्हा उठने का प्रयत्न करता है,किन्तु एक नवयुवक तुरन्त उसे सहारा देकर ताल्हा की कमर के नीचे तकिया लगा कहता है,अभी आप उठने का प्रयत्न ना करें।आपको पूर्ण विश्राम की आवश्यक्ता है,आप पहले पूर्ण रुप से स्वस्थ हो जाएँ। ताल्हा अपने दोनों हाथ उठाने का प्रयत्न करता है। दोनों उसका एक-एक हाथ पकड़ लेते हैं। ताल्हा कहता है "मेरे मेहरबान,मेरे मोहसिन आपने मुझ बे यारो-मदद गार मुस्तकिल मौत के हाथों में पहुंचे, इस पठान को ज़िन्दगी बख्स कर, जो एहसान हम पर किया है,इस ज़हान में उसकी मिसाल मिलना नामुमकिन है,और ना ही इसका कोइ बदला चुकाना ही मुमकिन है। इस लिए आज ये ताल्हा सैय्यद अपने खुदा को हाज़िर- नाज़िर मान कर ये वादा करता है कि,अब ये जान आप ही की अमानत है।अब ये आप पर मुनहसर है कि ,आप मुझे अपना दोस्त मानें या ग़ुलाम। मैं और मेरा पूरा कुनबा आप का ग़ुलाम है।नवयुवक कहता है कि,आप जैसा बहादुर दोस्त पाकर हमें अति प्रसन्नता है।ताल्हा सैय्यद कहता है , क्या मैं अपने मेहरबान दोस्तों के नाम जान सकता हूँ ?दूसरा नवयुवक कहता है कि ,यह मेरे बड़े भ्राता दस्स राज,और मैं इनका अनुज वत्स राज। तभी वैद्यराज आगे बढ़कर दस्स राज की तरफ संकेत कर कहता है, कि ये इस राज्य बक्सर के राजा हैं। ताल्हा सैय्यद पलंग से नीचे पांव रखने के प्रयत्न मेँ अस्थिर हो जाता है ,दस्स राज तुरन्त ताल्हा सैय्यद को सम्भाल कर कहते हैं,ये आप क्या कर रहे हैं ?आप लेटे रहिये। ताल्हा सैय्यद कहता है कि ,ये मेरी कितनी बड़ी बदकिस्मती है कि ,मेरे राजा मेरे सामने खड़े हैं ,और मैं उठ कर उनका इस्तकबाल भी नहीं कर सकता। दस्स राज कहता है की ,अब हम मित्र हैं ,और मित्रों में औपचारिकता कैसी?। ताल्हा सैय्यद को पलंग पर लिटाते हुए कहते हैं ,आप आराम करें ,अभी शरीर को कष्ट ना दें ,और मित्र अब कोइ किसी भी प्रकार की चिंता ना करें। आप हमारे मित्र हैं,हमारी हर वस्तु पर आपका भी उतना ही अधिकार है,जितना हमारा। कभी भी किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो आदेश करें।हमारी कामना है कि ,आप शीघ्रता से स्वास्थय लाभ करेँ।
एक दिन देवराज इन्द्र राजा परिमल की अनुपस्थिति में,राजा परिमल का वेश धर रानी मल्हना के दर्शन के लिये आते हैं। उस दिन एकादशी होने से रानी मल्हना आश्चर्य चकित हो पूछ बैठती है,कि महाराज यह कैसा अधर्म,आज एकादसी के दिन मेरे कक्ष में आपका आगमन ?तत्पश्चात मल्हना देखती है,कि उनके पैर भी धरती को नहीं छू रहे हैं,वातावरण आद्र होने के पश्चात् भी उनके भाल पर श्रम कण (पसीने की बूंदें )भी नहीं हैं। रानी मल्हना अपने सतीत्व के बल से देवराज इन्द्र को पहचान कर,हाथ जोड़ कर कहती है कि,प्रभु आप को महाराज का रुप धरने की क्या आवश्यकता आ पड़ी ?,आप तो हमारे आराध्य हैं। देवराज इन्द्र लज्जा वश निरुत्तर हो कहते हैं कि,में तो तुम्हारे पतिव्रत धर्म की परीक्षा ले रहा था,जिसमेँ तुम शत प्रतिशत सफल रहीं,मुझसे कोइ वर माँगो। महारानी मल्हना कहती है,कि प्रभु मुझे आप समान पुत्र की प्राप्ति हो व सदैव आप की कृपा हम पर बनी रहे। देवराज इन्द्र " एवमस्तु " कह कर अंतर्ध्यान हो जाते हैं, तथा इस घटना के उपरांत फिर कभी नहीं आते।
राजा परिमल अपनी रानी परम सुंदरी मल्हना के साथ जीवन को भरपूर आनंद लेते हुए व्यतीत करने लगते हैं।जीवन संपूर्ण प्रतीत होता है,तपस्वी का कथन अब राजा परिमल के जीवन में सत्य हो उठता है।
चंदेरी में,जहाँ की व्यवस्था राजा परिमल के कनिष्ठ भ्राता भीष्म का उत्तरदायित्व है। एक दिन राजा भीष्म मृगया हेतु घोड़े पर सवार हो कुछ सैनिकों को साथ ले जंगल में निकल जाते हैं।मृगया उन दिनों राजाओं का प्रिय खेल हुआ करता था। इसमें कई -कई दिन जंगल में व्यतीत हो जाते थे। जब तक इससे ऊब न हो जाये तब तक वापसी का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।( मृग्या सेना के प्रशिक्षण के लिए तथा युद्ध की परिस्थितियों के वातावरण से भिज्ञ होने के लिए भी आवश्यक होती थी,राजा की अनुपस्थिति में राज कार्य प्रभावित न हों इसके लिए राजधानी से मृगया हेतू स्थापित शिविरों तक आवश्यक्ता अनुसार हरकारे द्वारा चिठ्ठी-पत्री व संदेशों का आदान प्रदान किया जाता था। ) राजा भीष्म भी जंगल में हिंसक जंतुओं को मारते मृगया का आनंद लेते जंगल में विचरण करते हुए दूर निकल जाते हैं।
शिकार खेलते हुए अपने सेनिकों से आगे निकल एक विशाल विकराल जंगली वराह (सूकर) के पीछे लग उस पर तीर से वार करते हैं,तीर वराह को लगता है,वराह तीर से घायल हो अपने प्राण बचाकर और तेजी से भागता है। राजा भीष्म भी तीर-कमान लिए वेग से उसके पीछे लग जाते हैं। राजा भीष्म के तीर से घायल हो तथा थकान से चूर हो वराह गिर जाता है। राजा भीष्म उसका प्राणान्त करने के लिए दूसरा तीर संधान करते हैं,तभी सावधान की आवाज उनके कानों में पड़ती है,राजा भीष्म उस कर्कश आवाज़ की दिशा में देखते हैं।घोड़े पर सवार एक सैन्य दल उनकी ही दिशा में बढ़ा आ रहा है,कुछ पैदल सैनिक भी हैं। उनमें से एक जो अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होता है,आगे बढ़कर राजा भीष्म से पूछता है,तू ने मेरे राज्य की सीमा में घुस कर शिकार खेलने का साहस कैसे किया ?क्या तुझे पता नहीं है की मेरे राज्य में अनधिकृत प्रवेश कर शिकार खेलना कितना बड़ा अपराध है। इस अपराध के लिए तुझे बंदी बनाकर दण्ड दिया जाएगा। राजा भीष्म एक तो उसकी अशिष्ट वाणी सुन,दूसरे शिकार हाथों से निकलता देख गुस्से में भर जाते हैं,जो बाण उन्होंने कमान से उतार लिया था,तुरन्त क्षण भर में उसे संधान कर वराह का प्राणान्त कर देते हैं। इतने में पीछे छूट गयी उनके सैनिक भी आ जाते हैं।राजा भीष्म कहते हैं, शिकार तो हम राजाओं का खेल हुआ करता है,और तुम कौन' हो ?जो यह भी नहीं जानता कि सम्पूर्ण आर्यव्रत में शिकार कहीं प्रतिबन्धित नहीं है,शिकार खेलते हुए सीमाओं का अतिक्रमण तो अति साधारण बात है,उल्टे हमें आया जान वहां का राजा हमारा आदर-सत्कार कर हमें मृगया हेतु संसाधन उपलब्ध करा स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता,किन्तु तुम अशिष्ट अभद्र राजा तो नहीं लगते,हाँ.,,, आचरण से किसी दस्यु दल के सरदार अवश्य लगते हो।
(राजा हीरा सिंह आर्यावृत का अति कुख्यात राजा होता है। हीरा सिंह अपने राज्य के चोर-डाकुओं के साथ-साथ अन्य राज्यों के भी असामाजिक तत्वों को राज्याश्रय प्रदान कर,उसकी एवज में उनसे उनकी लूट आदि में अपना प्रतिशत नियत कर अपनें राज्य कोष की वृद्धि करता व अपने राज्य के अतिरिक्त दूसरे'अन्य राज्यों में लूट,पाट डकैती,अपहरण आदि में उनकी हर प्रकार से सहायता करता। अपनी इन्ही आदतों के कारण वह सम्भ्रांत राजाओं की दृष्टि में हीन दृष्टि से देखा जाता। आर्यावृत के राजे-महाराजे हीरा सिंह से किसी प्रकार का सम्बन्ध रखने से बचते थे,अनैतिक कार्यों से अर्जित धन से हीरा सिंह ने विशाल सेना खड़ी कर ली थी। बड़े राजाओं अथवा अपने से शक्ति शाली राजाओं से वह कभी टकराता नहीं था,किन्तु छोटे राजाओं की नाक में
दम करे रखता।कई बार छोटे राजाओं ने समूह बनाकर इसे काबू करना चाहा,किन्तु असफल रहे। बड़े राजा ऐसे उच्श्रंखल राजा पर किसी प्रकार की कार्रवाही को अपनी हेठी समझते। इससे वह और भी ढीठ हो गया था ) राजा भीष्म के इतना कहते ही हीरा सिंह आग-बबूला हो कर अपने सैनिकों को राजा भीष्म को पकड़ने का आदेश देता है। भीष्म के सैनिक आगे बढ़ कर हीरा सिंह के सैनिकों से भिड़ जाते हैं,हीरा सिंह तलवार ले कर भीष्म पर झपटता है। दोनों ओर से घमासान मच जाता है। हीरा सिंह भीष्म से युद्ध करते हुए शीघ्र पस्त हो कर अपने सैनिकों को और वेग से लड़ने का आदेश दे कर स्वयं पीछे हट जाता है। राजा भीष्म हीरा सिंह के सैनिकों को गाजर मूली की तरह काटने लगते हैं। हीरा सिंह भाग कर अपने प्राण बचाता है। राजा भीष्म अपने घायल सैनिकों को उठवा कर व अपने शिकार को एक घोड़े पर लदवा कर अपने शिविरों की तरफ लोट पड़ते हैं। अभी राजा भीष्म कुछ ही दूर जा पाये होते हैं, कि हीरा सिंह विशाल सेना ले कर भीष्म पर आक्रमण कर देता है। राजा भीष्म अपने कुछ सैनिकों को घायलों को शिविर तक पहुँचाने का आदेश दे कर, तथा कुछ वीर सैनिकों को साथ ले कर हीरा सिंह की सेना से भीड़ जाते हैं।भीष्म के सैनिक भी भयंकर मार-काट मचाते हैं,किन्तु कहाँ कुछ सैनिक और कहाँ विशाल सेना।धीरे -धीरे भीष्म के सारे सैनिक काम आ जाते हैं। राजा भीष्म यह देख और वेग से लड़ते हैं। राजा भीष्म को शिविर में वापिस ना आया देख वे सैनिक भी भीष्म की सहायता के लिए आते हैं ,किन्तु वे भी खेत रहते हैं,राजा भीष्म अकेले पड़ जाते हैं। युद्ध क्षेत्र में हर तरफ क्षत-विक्षत शव ही शव दिखाई पड़ते हैं,भूमि रक्त से कीचड़ बन जाती है.दोपहर से शाम हो जाती है। अकेला एक योद्धा कब तक लड़ता। थकान से चूर हो जाते हैं,किन्तु सामने फिर भी विशाल सेना,बाहु शिथिल हो जाते हैं.अश्व भी पस्त हो जाता है। राजा भीष्म मूर्छित हो घोड़े पर गिर जाते हैं,तलवार हाथ से छूट जाती है। राजा भीष्म को रस्सियों से जकड़ कर बंदी बना लिया जाता है।उन्हें वहां से सौ कोस की दूरी पर बने एक दुर्गम किले में ले जाकर कैद कर दिया जाता है।
अगले ही दिन हरकारा जब राजा भीष्म के लिए चिठ्ठी-पत्री व कुछ सन्देश लेकर शिविर पर पहुंचता है, तो वहां घायलों को देख, तथा युद्ध का वृतांत सुन स्तब्ध रह जाता है। हरकारा तुरन्त वहां से कूच कर, चंदेरी पहुँच कर,महामंत्री व अन्य सभासदों को वस्तुस्थिति से अवगत कराता है।महामंत्री तुरंत ही उसी हरकारे द्वारा इस अनिष्ट की सूचना महाराज परमर्दी देव के पास महोबे भिजवाते हैं। परमर्दि देव यह समाचार सुन कर चिंतित हो जाते हैं। तुरन्त राजज्योतिषी को बुलवा कर परामर्श किया जाता है।राजज्योतिषी गणना कर बताते हैं की नि:संदेह भीष्म के प्राण संकट में हैं,शीघ्र कार्यवाही करनी होगी विलम्ब घातक होगा। राजा परिमल तुरंत सभासदों से परामर्श कर गुप्त चरों को नाना प्रकार से प्रलोभित कर भीष्म की खोज में भेज देते हैं। गुप्त चर राजा भीष्म की मृगया की दिशा में जा कर जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। एक गुप्तचर भटकते -भटकते उस जंगल में पहुँच जाता है,जिस किले में राजा भीष्म को बंदी बनाकर रखा था।वह जल तथा भोजन की खोज में वहां पहुँच कर वहां पहरा दे रहे सैनिकों से जल तथा भोजन प्राप्ति की याचना करता है। वहां पहरा दे रहे सैनिक गुप्तचर को पानी दे कर कहते हैंकि ,भाई भोजन के विषय में तो हम तुम्हारी सहायता नहीं कर सकते,हाँ,,,,यदि तुम थोड़ी देर यहीं विश्राम करो तो हमारे लिए जो भोजन आएगा उस में तुम भी सहभागी हो जाना,अन्यथा नगर तो यहाँ से बहुत दूर है।गुप्तचर कहता है,आप भद्र पुरुषों ने मुझ पथिक पर बड़ी कृपा की,अन्यथा मेरी यात्रा,भूख और इस चिलचिलाती धूप से क्लांत हो कर ना जाने क्या दशा होती।भोर से पूर्व ही मेने यात्रा प्रारम्भ कर दी,अपरान्ह होने आया मार्ग में न कोई नगर,ग्राम,बस्ती,हाट ही मिला जहाँ कहीं भोजन,जल-पान की कुछ व्यवस्था हो जाती।इस घने जंगल में पग-पग पर जंगली जानवरों का भय अलग। लगता है मुझसे मार्ग चिन्हित करने में कुछ भूल हो गयी,किन्तु आप लोग यहाँ इस निर्जन घने वन में,नगर से दूर इस किले की रक्षा में ,,,,,,?ऐसा विशेष क्या है इस किले में जिसके चोरी होने का भय हो ?पग-पग पर सजग -सन्नद्ध प्रहरी।यदि आपको असुविधा न हो तो बताने का कष्ट करें मुझे तो विष्मय हो रहा है। आप लोग यहाँ अपने परिवार से दूर ,,,,,भई मुझे तो अत्यन्त कौतुहल हो रहा है। सैनिक कहते हैं, भाई ऐसा यहाँ कुछ नहीं है जिसे कोई लूट या चुरा ले जाये,और ,,,,वो भी हमारे राज्य से,ऐसा तो (हंस कर )संभव ही नहीं है। हाँ एक बंदी अवश्य है,जिसने हमारे महाराज से युद्ध करने का साहस किया,वह भी कुछ मुट्ठी भर सैनिकों के साथ। बेचारा ,,,,जानता नहीं था, किस राजा से भिड़ रहा है ? व्यर्थ ही फँस गया। तभी दूसरा सैनिक बोल उठा ये तो रहने दो लाल सिंह,यदि तुम उस दिन युद्ध क्षेत्र में होते, तो ऐसा नहीं कह रहे होते। इस बंदी ने जो अनुपम वीरता दिखाई, निसंदेह अदभुत। मैं ने अपने जीवन में ऐसी वीरता,ऐसा युद्ध कौशल नहीं देखा। उस अकेले ही वीर ने हमारी सेना को कितनी क्षति पहुंचाई, हज़ारों वीरों को मृत्यु के घाट उतारा । अपनी साथियों के मृत होने के पश्चात् भी,वह अकेला वीर तीन पहर तक तलवार चला कर, अद्भुत अविस्मरणीय प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए मूर्च्छित हो गया,मुझे तो यह वीर निःसंदेह किसी उच्च कुल का राजपुरुष प्रतीत होता है। देख लेना लाल सिंह इसके सम्बंधी शीघ्र ही इसका पता लगा कर ,अवश्य ही इसकी मुक्ति का कोई ना कोई उपाय करेंगे। लाल सिंह ने कहा क्या उपाय करेंगे ?हमारे महाराज से युद्ध क्या कोई हंसी ठट्ठा है। और फिर इसके कारण महाराज ने कितनी हानि उठाई,क्या इसे यूँ ही छोड़ देंगे ?युद्ध करने का साहस तो इस आर्यावृत में चक्रवर्ती सम्राट कन्नौज नरेश जयचंद के अतिरिक्त कोई कर नहीं सकता। और उन्हें क्या पड़ी, जो व्यर्थ ही किसी के फटे में टांग अड़ाएं ?इस बंदी से उनका क्या लेना देना ? हाँ..... यदि कोई और हुआ तो हमारे महाराज अपनी हानि की भरपाई के बाद स्वतंत्र करने हेतु विशाल राशि की प्राप्ति अवश्य करेंगे देख लेना (हँसता है )गुप्त चर ने कहा नि;संदेह विशेष बंदी ही है,जिसके लिए इतनी सुरक्षा। किन्तु यदि इसकी सूचना पाकर इसके सम्बन्धी यहाँ सेना सुसज्जित कर आक्रमण कर दें ,और यदि वे भी ऐसे ही वीर निकले तो ?ये तो अकेला ही था,किन्तु यदि उस सेना में और सौ पचास ऐसे वीर हुए तो? दूसरा सैनिक बोला,भाई पथिक भय भीत मत करो,मैंने तो इस वीर की वीरता अपनी इन्हीं आँखों से देखी है। यदि ऐसे दस-पांच भी किसी सेना में हुए तो चाहे कितनी बड़ी सेना हों इनकी विजय निश्चित है। मैं तो उसका अश्व देख कर ही दंग रह गया।जैसा यह वीर ,वैसा ही इसका तुरंग। गुप्तचर ने मन ही मन में विचार किया,कि यह तो लगभग निश्चित हो गया है ,कि यहाँ पर बंदी रूप में हमारे कुमार भीष्म ही हैं,किन्तु यदि किसी युक्ति से उनके दर्शन कर सकूँ तो पूर्ण सिद्ध हो जाए,और उन को भी ये ज्ञात हो जाए की उन्हें खोज लिया गया है,तो नि;संदेह कुमार भीष्म भी निश्चिंत हो जाएंगे। और फिर मेरा मान सम्मान,मुझे प्राप्त होने वाले पुरस्कार,राजकीय सेवाओं में मेरे अधिकार,पद प्रतिष्ठा में वृद्धि निश्चित है जीवन परिपूर्ण हो जाएगा। एक बार नगर कोतवाल ने मेरा अपमान किया था,अब देखना कैसे मैं उस अपमान का प्रतिकार लूँगा,क्या पद होगा मेरा ?हाँ प्रधान गुप्तचर महा सिंह (स्वपन देखने लगता है,स्वपन के अंत में जोर से महा सिंह,महा सिंह का उद्घोष सा करने लगता है।) दौनो सैनिक उसे झिंझोड़ कर स्वपन से बाहर लाते हैं। सैनिक लाल सिंह पूछता है ,भाई तुम्हें क्या हुआ अकस्मात् जोर-जोर से महा सिंह ,महा सिंह भजने लगे। गुप्तचर बोला कुछ नहीं भाई एक बार हमारे गाँव को महा सिंह नाम के दस्यु ने लूट लिया था। जो विशेषतायें आपने इस बंदी और उसके तुरंग की वर्णित की हैं। कहीं यह वही दुर्दांत दस्यु तो नहीं?मेरी तो उसकी कल्पना मात्र से यह दशा हो गयी। लाल सिंह नें कहा,अरे.…भाई ये क्याकह रहे हो ?किस दस्यु में इतना साहस होगा जो हमारे राज्य में पग रखने का साहस करे,काण्ड करने की बात तो दूर है।किन्तु नि:संदेह तुमने तो संशय में डाल दिया है। इस शंका का निवारण तो होना ही चाहिए कि वास्तविकता में ये है कौन?किन्तु तुम्हें उसके दर्शन कराने के लिए तो,दुर्ग पाल से आज्ञा लेनी होगी। अरे!………भाई लाल सिंह क्यों अपने पावं पर कुल्हाड़ी मार रहे हो ?यदि तुमने दुर्ग पाल से आज्ञा ली तो,उसके महा सिंह प्रमाणित होने का सम्पूर्ण श्रेय,पुरस्कार, मान सम्मान का अधिकारी तो दुर्ग पाल हो जाएगा,हाँ....... यदि तुम निरे निखट्टू,सिर्री हो, और जीवन यूँ ही द्वार पर भाला लिए खड़े -खड़े व्यतीत करना चाहो तो ,और बात है। (कुछ रुक कर ) मुझे क्षमा करना भाई जो मैने आपके लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया। मेरा आशय इस विषय में मात्र आपका हित है। अन्यथा मुझे उस पिशाच ,नराधम दस्यु के दर्शन से किस लाभ या पुण्य की प्राप्ति होगी ?इसके विपरीत विकार ही उत्पन्न होगा। आपने मुझ पथिक को जल पान कराया,और भोजन की व्यवस्था करवा रहे हैं,ऐसे सह्रदय सज्जनों के उपकार से यदि तृण मात्र भी उऋण हो सकूँ तो मेरा अहोभाग्य,संभव है यही ईश्वर की इक्छा हो। लाल सिंह सोचने लगा बात तो ये भला मानुस ठीक ही कह रहा है,यदि यह बंदी दस्यु महा सिंह निकला, तो मुझ पर महाराज की कृपा दृष्टि निश्चित है,किन्तु इस पथिक को बंदी के दर्शन कैसे करवाये जाएँ?दुर्ग पाल को यदि बंदी के दस्यु महा सिंह के विषय में बता दिया गया तो, नि:संदेह धूर्त दुर्ग पाल स्वयं सारा श्रेय ले उड़ेगा,और मैं हाथ मलता रह जाऊँगा।किन्तु दुर्ग पाल की आज्ञा कैसे संभव है (अकस्मात )अरे हाँ .......मित्र हमारे भोजन के साथ ही बंदी का भोजन भी आता है,मैं उन्हें सैनिकों को भोजन पहले कराने की कह कर अपने साथ तुम्हारे हाथों बंदी का भोजन उठवा कर उस कोठरी तक ले के चल सकता हूँ। ये युक्ति कैसी रहेगी ?गुप्तचर ने कहा,मित्र आप तो निश्चित ही विलक्षण बुद्धि के स्वामी हैं। मेरे पूर्व में कहे कटु वचनों को क्षमा करना,युक्ति तो आपने क्या खूब सोची है?किसी को तनिक भी संशय नहीं होगा कि मैं कौन हूँ ?(इतने में बैल गाड़ियां आती दिखाई देती हैं। ) लाल सिंह -लो मित्र भोजन भी आ गया। (लाल सिंह अपनी योजना के अनुसार भोजन लाने वालों को बंदी का भोजन वहीँ छोड़ पहले सुरक्षा में रत सैनिकों को भोजन कराने की आज्ञा देता है। तत्पश्चात गुप्तचर के हाथों बंदी का भोजन उठवा कर अंदर कोठरी की तरफ चलता है। अंदर दूसरे द्वार को खटखटाता है। अंदर के सैनिक भी उसे भोजन के साथ आया देख किसी प्रकार का संदेह नहीं कर पाते। वे दोनों सलाखों में जकड़े भीष्म की कोठरी तक पहुँच जाते हैं।लाल सिंह गुप्त चर से कहता है की''मित्र मैं यहीं कोठरी के द्वार पर ही खड़ा रहूँगा,तुम बंदी के पास जाकर उसे भली -भांति पहचान लो''।भोजन का थाल (संकेत करता है )उस चबूतरे पर रख देना। गुप्त चर भोजन का थाल ले जाकर चबूतरे पर रख कर, अर्ध-विक्षिप्त से हो चुके भीष्म के निकट जा कर अत्यंत अस्फुष्ट स्वर में "कुमार भीष्म को गुप्त चर महा सिंह का प्रणाम'कहता है।भीष्म अचेत देह में हल्की सी झुर झुरी होती है। भीष्म अपनी अर्धमीलित दृष्टि गुप्तचर पर डालते हैं। गुप्तचर तुरन्त गुप्त रूप से सावधानी पूर्वक भीष्म को अपनी कलाई पर बंधा राज चिन्ह दिखलाते हैं। एक क्षीण सी मुस्कान भीष्म के होठों पर आती है।गुप्तचर तुरन्त उच्च स्वर में पुकारता है '' अरे ओ बन्दी देख तेरे लिए भोजन आ गया है"। फिर तनिक झुक कर "कुमार निश्चिंत हो कर भोजन करें,ताकि देह में शक्ति का संचार हो। आपकी इस दशा से मुक्ति अब केवल कुछ ही समय की बात है''। गुप्तचर तनिक पीछे हट कर वापिस मुड़कर लाल सिंह के पास आकर अपना मुंह लटका कर कहता है "भाई लाल सिंह क्षमा करना ये दस्यु महा सिंह नहीं है"।" क्या तुमने भली-भांति निरीक्षण किया है ?" लाल सिंह पूछता है।"मेरे प्रयास में त्रुटि का कोई स्थान नहीं है,और फिर तुमने देखा नहीं मेने उसके निकट जाकर कई बार उसका नाम भी लेकर पुकारा था। नि;संदेह हमारा यह उधोग निष्फल हुआ,दुःख है तुम्हारी कृपा का कुछ भी भार ना उतार पाया,अब आज्ञा दें इस मलिन मुख से आपके साथ क्षण भर भी रुकना नहीं चाहता "। इतना कह कर गुप्तचर लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ, मुख्य द्वार पर आकर, अपने घोड़े पर सवार हो जाता है,लाल सिंह भी शीघ्रता से डग भरता हुआ उसके पीछे -पीछेआता है। अरे.…… मित्र कृपया अपना नाम तो बताएं, लाल सिंह ने पूछा?। "महा सिंह"महा सिंह लाल सिंह को मुस्करा कर देखते हुए कहने के साथ ,घोड़े को एड़ लगा अपनी दिशा में सरपट निकल जाता है।पीछे लाल सिंह अपना सिर खुजाता'हुआ अवाक् सा उसे देखता रह जाता है। मार्ग में ही घटायें घिर आतीं हैं, वेग वती हवायो के साथ मूसलाधार वर्षा का ताण्डव प्रारम्भ हो जाता है। किन्तु जैसे जैसे उनका वेग बढ़ता जाता है,गुप्तचर महा सिंह भी अपना वेग बढ़ाता जाता है। अर्ध-रात्रि के समय महा सिंह महोबे राजमहल के द्वार पर पहुँच जाता है। चारों तरफ घनघोर अन्धकार का साम्राज्य,प्रलय समान परिस्थितियों में, मात्र अनुमान के सहारे स्वयंम को सकुशल महोबे तक की यात्रा पूर्ण करने पर धन्य अनुभव करता हुआ महा सिंह महल के मुख्य द्वार की सांकल को जोर से झकझोड़ता है। अंदर कोई प्रतिक्रिया ना होती देख पुन:और जोर लगा कर सांकल को विशाल फाटक पर मारता है। दूर कहीं से ''कौन है "है का स्वर सुनाई देता है। महा सिंह अनवरत अपने काम में लगा रहता है।"अरे भाई कौन हो ?उत्तर क्यों नहीं देते,फाटक तोड़ोगे क्या ?। मैं राजकीय गुप्तचर महा सिंह कृपया शीघ्र द्वार खोलें,महाराज के लिए अति आवश्यक विशेष संदेश लेकर उपस्थित हूँ। विशाल फाटक में संलग्न एक छोटा द्वार चरमराहट के साथ खुलता है।एक सैनिक उसमें से सिर निकाल कर महा सिंह को देख कर "क्यों भाई क्या भोर की प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे?महाराज की निद्रा में विघ्न डालने का परिणाम जानते हो ?।आप कृपया दुर्ग पाल से मेरा साक्षात्कार करवाएं,अविलम्ब,अति आवश्यक है महा सिंह ने कहा। "आप यहीं प्रतीक्षा करें,मैं आपका सन्देश दूर्ग पाल तक प्रेषित करता हूँ" इतना कह कर आरक्षी सैनिक पुन:द्वार बंद कर देता है।थोड़ी देर बाद द्वार खुलने के साथ वही सैनिक महा सिंह को अंदर बुलाकर दुर्ग पाल के पास ले कर जाता है,जो उनींदी आँखों से उसे देखता हुआ पूछता है,"ऐसा कौन सा विशेष सन्देश है,जिसके लिए भोर की प्रतीक्षा भी नहीं की जा सकती। आप मुझे दे दें,मैं भोर होते ही उन्हें पहुंचा दूंगा ? "क्षमा करें महानुभाव यह गोपनीय सन्देश महाराज के अतिरिक्त और किसी को देना मेरे लिए संभव नहीं। आप निरर्थक वार्तालाप में समय न गवाएं,अन्यथा विलम्ब के लिए आप उत्तरदायी होंगे।कृपया शीघ्रता करें"'महा सिंह ने दृढ़ता से कहा। महा सिंह की आदेशात्मक वाणी सुन कर दुर्ग पाल की उनींदे नेत्र खुल जाते हैं,देह तन जाती है,तुरन्त आसन त्याग कर खड़ा हो जाता है। कृपया अपना शुभ नाम बताएं ?दुर्ग पाल ने पूछा।"महा सिंह "गुप्तचर ने कहा।आप कृपया यहीं ठहरें, मैं महाराज के पास आपके आगमन का सन्देश ले कर जाता हूँ दुर्ग पाल बोला। मैं आपके साथ ही चलूँगा,वर्तमान परिस्थितियों में प्रत्येक क्षण मूल्यवान है,महा सिंह ने कहा। किन्तु आप अपनी दशा तो देखिये ,आपके वस्त्र तो वर्षा से भीगे होने के साथ-साथ कीचड़ आदि से सने हैं ,इस दशा में........ राज महल में.…… ?दुर्ग पाल बोला।मुझे अपनी दशा की लैश मात्र चिंता नहीं है, ना आप करें ,आप कृपया महाराज के शयन कक्ष तक मेरा मार्ग दर्शन कर, अपना कर्तव्य निर्वाह करें, महा सिंह ने उत्तर दिया। आइये …कह कर दुर्ग पाल महल दिशा में चलता है ,महा सिंह भी साथ-साथ उसका अनुसरण करता है। महल के मुख्य द्वार पर पहुँच कर वहां उपस्थित आरक्षी से तुरन्त महाराज के दर्शन की आज्ञा देता है। कुछ ही क्षण पश्चात वे दोनों महाराज के सम्मुख होते हैं। महाराज परिमल उन्हें देखते ही " दुर्ग पाल इस समय आपके उपस्थित होने का कारण " ? क्षमा करें महाराज ,ये राजकीय गुप्तचर विशेष सन्देश हेतु आपके दर्शन के लिए हठ कर रहे थे,मैंने इनसे प्रार्थना भी.…, (महा सिंह दुर्ग पाल की बात काटकर ) महाराज की जय हो,नि:संदेह महाराज, कुमार भीष्म से सम्बंधित सन्देश के लिए मैंने मैंने आपकी निद्रा में विघ्न उपस्थित किया,अपराध के लिए क्षमा प्रार्थी ……(महाराज महा सिंह की बात काटते हुए ), क्या कुमार भीष्मको खोज लिया गया ,कहाँ हैं ?कैसे हैं ?(आवेश में महाराज महा सिंह के पास आकर उसके दोनों बाहु झिंझोड़ते हैं)। जी महाराज सेवक स्वयं उनसे साक्षात्कार कर कर आ रहा है,महा सिंह दृष्टि नीचे किये उत्तर देता है।( महाराज अपने हाथों से उसके वस्त्रों के गीलेपन को अनुभव कर ) यह क्या तुम्हारे वस्त्र तो …ज्ञात होता है,तुमने मार्ग'में कहीं विश्राम नहीं किया?किन्तु ऐसी विषम ,विपरीत परिस्थितियों में, क्या तुम्हें भय नहीं लगा ? कर्तव्य पालन में भय कैसा महाराज ?महा सिंह ने कहा। हम तुम्हारी कर्म एवं कर्तव्य निष्ठां से अति प्रसन्न हैं,आसन ग्रहण करो वीर (महा सिंह संकोच करता है)संकोच न करो,हमारा आदेश है(सकुचाता महा सिंह एक तख़्त पर बैठता है)। अब हमें भीष्म के विषय में बताओ वे कैसे हैं ? महाराज परमर्दिदेव प्रश्न करते हैं। कुमार राजा हरी सिंह के घने जंगल में स्थित दुर्ग की काल कोठरी में बंदी हैं।महा सिंह उत्तर देता है। उनकी दशा कैसी है ,तुम तो उनसे मिल कर आ रहे हो ? महाराज पुनः प्रश्न करते हैं। जैसे किसी बंदी की बंदी गृह अथवा यातना गृह में होती है महाराज। महा सिंह ने प्रत्युत्तर में कहा। आपसे एक निवेदन की आज्ञा चाहूंगा महाराज ?अवश्य किन्तु वीर प्रथम मुझे अपने शुभ नाम से अवगत कराएं ?महाराज सेवक को महा सिंह के नाम से पुकारते हैं ,तथा आपसे निवेदन है, कि हमें अविलम्ब सैन्य कार्यवाही कर कुमार को बंदी गृह से मुक्त करने का प्रयोजन करना चाहिए।( महाराज परमर्दिदेव आवेशित हो दुर्ग पाल को लक्ष्य कर कहते हैं,) तुरन्त सेना पति को हमारी सेवा में प्रस्तुत होने का सन्देश दो …अविलम्ब।(जो आज्ञा कह कर दुर्ग पाल तेजी से निकल जाता है.महाराज महा सिंह पर दृष्टि पात कर )और वीर महा सिंह तुम भी अपने निवास पर जाकर विश्राम करो। हम मंत्री,सेना पति व अन्य सभासदों से मिल कर इस विषय पर रणनीतिगत मंत्रणा करेंगे। आज्ञा हो तो सेवा में एक सुझाव प्रस्तुत करना चाहूंगा ?महा सिंह ने उठते हुए कहा। अवश्य वीर ,किन्तु (सोचते हुए ) प्रथम तुम अपने निवास पर जाओ एवं पुनः व्यवस्थित होकर आओ, तब तक मंत्री,व् सेनापति भी यहीं उपस्थित होंगे।जो आज्ञा,(महा सिंह आदर सहित झुकते हुए,पीछे चलते हुए घूम कर निकल जाता है। महाराज विचार मग्न मुद्रा में कक्ष'में टहलते हैं। कभी द्वार तक आते हैं,कभी आसन पर बैठते हैं, बार-बार ऐसी क्रियाएँ दोहराते हैं, जब तक सेनापति व अन्य नहीं आ जाते।महाराज सेनापति आदि को भीष्म से सम्बंधित समाचार से अवगत कराते हैं,इतने में महा सिंह भी पहुँचता है। महाराज महा सिंह को देख कर )
आओ वीर महा सिंह (सेनापति व अन्य सभासदों की ओर देख कर )यही हमारी गुप्त चर सेवा का वह वीर है,(महा सिंह सबका अभिवादन करता है। )महा सिंह अब अपने भीष्म प्रकरण का समस्त विवरण प्रस्तुत करो। (महा सिंह पूरा विवरण सुनाता है,विवरण सुनने के पश्चात,सब उसे प्रशंसनीय दृष्टि से देखते हैं,महा सिंह संकोच वश दृष्टि झुका लेता है। )महाराज परमर्दिदेव पुनः कहते हैं ,महा सिंह तुमने तो अद्भुत प्रशंसनीय कार्य किया है,निःसंदेह तुम प्रशंसा के पात्र हो,इसमें संकोच कैसा ?मेरे स्थान पर कोई अन्य सेवक होता तो निःसंदेह वह भी ऐसा ही करता। अंतर केवल इतना है की ये सौभाग्य मुझे मिला, महा सिंह ने कहा। महाराज उसके पास जाकर उसे छाती से लगाकर कहते हैं, तुम्हारे इस साधुवाद के लिए शब्द नहीं हैं। तुम्हारे सरीखे कर्तव्य परायण,देश भक्त सैनिक ही हमारा गौरव हैं,हमारा बल हैं। तुम इस सम्बन्ध में कुछ सुझाव देना चाह रहे थे ?(महा सिंह संकोची भाव से मंत्री परिषद पर दृष्टि पाद करता है )निःसंकोच हो कर अपनी बात कहो,महाराज उसका उत्साह वर्धन करते हैं। महाराज मैं अकिंचन तो केवल यह कहना चाह रहा था ,कि वातावरण में अकस्मात हुए इस परिवर्तन को हम अपने पक्ष में मान कर चलें। शत्रु पक्ष निःसंदेह ऐसे में दुर्ग की रक्षा के प्रति किञ्चित असावधान होगा,उसे नगर से कुमुक व अन्य सहायता में भी, ऐसे में विघ्न निश्चित है। हमें अत्यधिक सैन्य शक्ति की आवश्यकता भी नहीं है। हमारे एक हज़ार महावीर सरदार, उनकी पूरी सेना को यम पुरी पहुँचाने के लिए पर्याप्त हैं। वहाँ की भौगोलिक परिस्थिति भी इसमें हमारी सहायता करेगी।वह दुर्ग तीन दिशाओं में ऊंचीं -ऊंचीं पहाड़ियों से घिरा है। हम यदि वेग से आक्रमण करेंगे तो भी इस आंधी-वर्षा में उन्हें हमारी पद-चाप सुनाई नहीं देगी,और हम उनके सिर पर पहुँच कर , बड़ी सरलता से उन्हें मृत्यु के घाट उतार कर कुमार को स्वतन्त्र करा लेंगे। अब रही राजा हरी सिंह के मान मर्दन की बात तो उन्हीं सैनिकों में से किसी एक के द्वारा सन्देश भिजवा कर, अपनी रणनीति बना कर वहीँ प्रतीक्षा करें। उनकी सेना को चारों तरफ से घेर कर उन्हें भ्रमित कर पराजित कर सकते हैं।महाराज परमर्दिदेव पूछते हैं, कि क्या तुमने वहां की भौगोलिक स्थिति का भली-भांति निरीक्षण कर लिया है ? जी महाराज !अन्ततः यह यह भी मेरे कार्य क्षेत्र आता है। मेरा धर्म है कि, मेरी सूचनाओं द्वारा हमारे सैन्य बल को इस अभियान में किसी प्रकार की क्षति ना पहुंचे।क्षमा चाहूंगा महाराज मेरी दृष्टि में हमें तुरंत प्रस्थान कर देना चाहिए। जब तक दल संगठित हो,मैं वहां की पूर्ण भौगोलिक स्थिति का वर्णन करने की आज्ञा चाहूंगा ? (महाराज उसे प्रशंसित भाव से देखते हुए )अवश्य। महाराज दल के संगठन का आदेश देकर सेनापति से शीघ्रातिशीघ्र प्रस्थान के लिए कहते हैं व स्वयं महा सिंह से वहां की भौगोलिक स्थिति समझते हैं।
रात्रि के अन्तिम पहर से पूर्व ही पूरा दल महा सिंह के मार्ग दर्शन में निकल पड़ता है।वर्षा रुक जाती है ,किन्तु वायु का वेग यथावत रहता है, घटाघोप बादल और घने हो जाते हैं । महाराज परमर्दिदेव,सेनापति, एक हज़ार महावीर सरदार व अन्य अनुचरों के साथ पहला पड़ाव पचास कोस पर स्थित एक विशाल बाग में डालते है। तम्बू,छोलदारियां तन जाती हैं।थोड़ा सुस्ताने व भोजन करने के पश्चात,कभी मूसलाधार कभी रिमझिम कभी नन्हीं नन्हीं फुहारों के बीच सब कुछ समेट यात्रा पुनः आरम्भ हो जाती है। संध्या होते-होते दल शत्रु राज्य में प्रवेश कर जाता है।अर्ध-रात्रि के समय अपने लक्ष्य से पांच कोस की दुरी पर घने जंगल में जहां हाथ को हाथ नहीं सुझाई देता है,अंतिम शिविर स्थापित किया जाता है। आवश्यकता अनुसार कुछ तम्बू -छोलदारियों तान कर उनमें युद्धकालीन व्यवस्था की जाती है। पेड़ों के साये में वर्षा से बचा कर मशालें जला दी जाती हैं। अंतिम व्यूह रचना की जाती है। पूरे दल को पांच भागों में विभक्त कर दिया जाता है।हरावल टुकड़ी में महा सिंह व २०० विशिष्ट महावीरों के साथ महाराज स्वयं तत्पर होते हैं।अन्य ८०० महावीरों को सेनापति व अन्य सरदारों की अगुआई में , ४ भागों में बाँट कर एक को दांयीं दिशा , एक को बांयीं दिशा से आक्रमण का दायित्व सौंपा जाता है। अन्य दो टुकड़ियों को शत्रु सेना को पीछे से घेर कर वार करने का कार्य दिया जाता है। महाराज के दल को छोड़ कर अन्य दल अपने संभावित ठिकानों की और अग्रसर होते हैं। उनके अपने स्थानों पर पहुँच जाने का अनुमान लगाने के पश्चात महाराज अपने दल को लेकर दुर्ग की दिशा में बढ़ते हैं। दुर्ग के समीप पहुँच कर महाराज ''आक्रमण ''का स्वर घोष करते हें।हर-हर महादेव ,जय भवानी,जय माँ शारदे के जय घोषों से दुर्ग को गुंजित करती पूरी टुकड़ी वेग से दुर्ग पर धावा बोल देती है। दुर्ग के विशाल लौह द्वार को पलीता लगा कर धराशायी कर दिया जाता है। लौह द्वार के ध्वस्त होने का कर्ण भेदी नाद सुन कर गहरी नींद में सुप्त दुर्ग पाल व अन्य दुर्ग रक्षक सैनिक जब तक कुछ समझ पाते महाराज का दल उनके सिर पर पहुँच उनका संहार प्रारम्भ कर देता है। अकस्मात् हुए इस आक्रमण से दुर्ग रक्षकों में हड़बड़ी मच जाती है।महाराज की टुकड़ी जिनके हाथों में अस्त्र-शस्त्र देखती है ,उन्हें अविलम्ब मृत्यु के घाट उतार दिया जाता है। निहत्थे,भयभीत ,प्राणो की भीख माँगनेँ वालों को पलायन का पूरा अवसर दिया जाता है। महा सिंह महाराज से कहता है ''महाराज दुर्ग पर हमारा पूर्ण नियंत्रण हो चुका है,क्यों ना अब हम कुमार भीष्म को बंधनमुक्त करें।'' हमें तुरंत उस स्थान पर ले चलो ''महाराज ने कहा। ''आइये महाराज''महा सिंह तुरंत अपना अश्व बढ़ा देता है। दोनों एक संकरे गलियारे से होकर एक अन्य लौह द्वार के समक्ष पहुंचते हैं। ''महाराज इस द्वार को हमें बल प्रयोग द्वारा उठाना होगा,जिससे यह अपनी चूलों से निकल सके,आप सेवक को प्रयास करने दें'',महा सिंह ने पीठ के पीछे हाथ ले जाकर ,द्वार की उभरी हुई सलाखों को पकड़ कर उठाने का प्रयास करता है ,किन्तु द्वार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। महाराज उसके पास आकर स्वयं भी उसके प्रयास में सहभागी होने को तत्पर होते हैं। महा सिंह कहता है,कि महाराज आप रहने दें,चूलें निकलने के पश्चात निस्संदेह यह वेग से धराशायी होगा, आप कृपया सुरक्षित दूरी पर रहें।आप की सुरक्षा भी सेवक का दायित्व है।''युद्ध क्षेत्र में राजा और सैनिक में अंतर नहीं होना चाहिए,बल ,वीरता किसी व्यक्ति विशेष की धरोहर नहीं होती ,आओ एक साथ प्रयास करें।'' महाराज ने कहा। '' किन्तु महाराज!''महा सिंह केवल इतना ही कह पाया तब तक महाराज के दोनों हाथ विशाल लोह द्वार की चूल की आधार सलाखा को थाम चुके थे। दोनों नें ''जय माँ भवानी ''का उद्घोष कर जोर लगाया,चूल अपने स्थान से ऊपर उठती चली आई। ऊपर आने के पश्चात दोनों ने उसे तल पर टिका दिया। अब ऊपर की धुरी से द्वार को अलग करना शेष रह गया। महा सिंह ने पीछे हट कर वेग पूर्वक अपने दोनों हाथों से द्वार को धक्का दिया। द्वार धुरी से अलग होकर दूसरी तरफ से भी टूट कर उनकी तरफ गिरने लगा,महा सिंह ने तुरंत उसे अपने दोनों हाथों पर ले कर महाराज को तुरंत उसके नीचे से निकलने को कहा। महाराज ने उसके नीचे से निकल कर ,महा सिंह के भार से कांपते हाथों के साथ अपने हाथ भी लगा देते हैं ,शनै:शनै:पीछे हटते हुए दोनों उसे ज़मीन पर गिरा देते हैं । ''मुख्य द्वार तो धराशायी हो गया महाराज,अब केवल सामने का काष्ठ का द्वार ही अंतिम है।'' महा सिंह अपनी दोनों तलवारों को हाथ में लेकर द्वार पर प्रहार करने लगता है। महाराज भी वैसा ही करते हैं। थोड़ी ही देर में द्वार इतना कट जाता है कि एक व्यक्ति उसमे सरलता से प्रवेश पा सकता था। "महाराज वे रहे कुमार भीष्म,"महा सिंह एक अँधेरे कोने की तरफ संकेत करता है।"आप उन्हें बंधन मुक्त करें,तब तक में इस द्वार को आप दोनों के निष्कासन योग्य काट देता हूँ।'' महाराज तुरंत ''भीष्म '' कहते हुए अपनी दोनों भुजाएं फैलाये भीष्म की दिशा में बढ़ते हैं।भीष्म लोहे के कुंदों में जकड़े अपने सिर को थोड़ा सा उठाकर अर्ध मिलित दृष्टि से आवाज़ की दिशा में देखते हैं। महाराज को देखते ही मानो भीष्म की देह में प्राणों का संचार हो जाता है।"दादा "कहते ही भीष्म के नेत्र डबडबा जाते हैं। महाराज भीष्म को अपनी बाहों में भर लेते हैं। भीष्म की आँखों से जल धारा बहनेलगती है। महाराज भीष्म के नेत्र पोंछते हुए कहते हैं ''यह क्या ?महावीर होकर रोते हो,अब तो हम आ गए हैं। अब तो शत्रु के रोने का समय है'' कह कर महाराज भीष्म की बेड़ियां काटने लगते हैं। महा सिंह भी शीघ्रता से अपना काम समाप्त कर महाराज की सहायता करता है। भीष्म के बंधन मुक्त होते ही महा सिंह घुड़साल से भीष्म का अश्व लाता है। महाराज सहारा देकर भीष्म को अश्व पर आरूढ़ करते हैं। आगे आगे महाराज और महा सिंह ,अपने पीछे भीष्म को लेकर अपने दल से आ मिलते है ,उन्हें देखते ही टुकड़ी हर्ष विभोर हो कर महाराज और भीष्म की जय जयकार करने लगती है।पूर्व में आकाश पर धीरे-धीरे प्रकाश का आभास होता , पौ फटने लगती है।
महाराज परमर्दिदेव भीष्म को युद्ध शिविर में जाने का परामर्श देते हैं,किन्तु भीष्म सविनय शत्रु से युद्ध करने की अपनी इक्षा जता कर,युद्ध क्षेत्र में ही रहने की आज्ञा मांगते हैं।एक सैनिक शत्रु सेना आगमन की सूचना देता है,तथा यह भी बताता है ,कि अन्य टुकड़ियों को भी सूचित कर दिया गया है। महाराज अपनी टुकड़ी को सचेत करने के साथ -साथ आवश्यक निर्देश देते हैं। वातावरण में कोलाहल सुनते ही महाराज अपनी तलवार उठा कर आक्रमण का आदेश देते हैं। महाराज के साथ पूरी टुकड़ी तेजी से उस दिशा में दौड़ पड़ती है।
महाराज के नेतृत्व में टुकड़ी पूरे उत्साह से शत्रु सेना पर टूट पड़ती है। भयंकर मार-काट मचाती शत्रु सेना में घुसती चली जाती है। शत्रु सेना दुर्ग पर अधिकार हेतु दायें बाएं फैल कर आक्रमण करने के प्रयास में दोनों ही दिशाओं में महोबे की अन्य दोनों टुकड़ियों के सामने पड़ जातीं हैं। तीन तरफ से होते आक्रमण से हीरा सिंह की सेना भ्रमित हो जाती है,उसके दलपति नहीं समझ पाते कि किस दिशा में युद्ध करें। भीष्म की दृष्टि हीरा सिंह को खोज रही होती है। हीरा सिंह अपने हाथी पर बैठा-बैठाअपनी सेना का संहार होते देखताहै,आगे बढ़कर अपनी सेना को प्रोत्साहित करता है।हीरा सिंह की सेना उत्साहित होकर बार-बार महोबे की सेना पर आक्रमण करती है ,किन्तु महोबे के वीरों के सामने स्वयं को घिरा देख कुछ तो प्राण गंवाते हैं,कुछ समर्पण कर अपनी प्राण रक्षा करते हैं कुछ अवसर देख पीठ दिखा, पलायन कर जाते हैं। हीरा सिंह यह देख,क्रोधित हो कर अपने महावत को हाथी बढ़ा महाराज परमर्दिदेव के सामने ले जाने का आदेश देता है। सामने पहुँचते ही हीरा सिंह महाराज परमर्दिदेव से कहता है कि ,अब समझ आया की वह कौन है?जिसनेमुझसे टकराने का साहस किया।मेरे राज्य में घुस कर मेरे बंदी को छुड़ाने का दुस्साहस किया। अच्छा ही हुआ, बैठे बिठाए मुझे महोबा और चंदेरी दोनों राज्यों का स्वामित्व मिल जाएगा,मैं बल में तो सर्वोपरि हूँ,अब धन में भी हो जाऊँगा। तुझे तेरे इस दुस्साहस का दण्ड अवश्य मिलेगा,अब तुम दोनों को बंदी बनाकर,तुम दोनों द्वारा की गयी क्षति की पूर्ती के साथ -साथ तुम्हें अपना दास बनाऊंगा। महाराज परमर्दिदेव ने हॅंसकर कहा, लगता है तुझे अपने सम्बन्ध में मिथ्या भरम हो गया गया है। तुझ जैसे अमर्यादित ,संस्कार विहीन व चरित्र हीन से इस आर्यावृत में कौन सम्बद्ध रखना चाहता है ? किन्तु आज आर्यावृत तुझ जैसे राजा से मुक्ति पा जाएगा।तूने अकारण ही मेरे कनिष्ट भ्राता को बंदी बनाकर राजाओं में प्रचलित साधारण नियमों की अवहेलना करने के साथ -साथ, अपने कुत्सित आचरण का भी प्रदर्शन किया है। अब मिथ्या सम्भासण बंद कर और युद्ध कर।
महराज परमर्दिदेव के इतना कहते ही हीरा सिंह अपने सैनिकों को आक्रमण का आदेश देता है,किन्तु महाराज की टुकड़ी के सैनिक उन सैनिकों को बड़ी सरलता से यमलोक पहुंचा देते हैं। यह देख महाराज परमर्दिदेव कहते हैं। साहस है तो मुझसे युद्ध कर हीरा सिंह, क्यों व्यर्थ रक्त पात करवा रहा है। यह सुनते ही हीरा सिंह एक भारी सांग उठा कर महाराज को लक्ष्य बना कर फेंकता है,महाराज उस सांग को वेग पूर्वक ढाल अड़ाकर टुकड़े -टुकड़े कर देते हैं। महाराज सिरोही घुमाकर उसके हौदे के कलश तोड़ देते हैं। हीरा सिंह भाले का वार महाराज पर करता है,महाराज अपने घोड़े को तुरन्त बाएं हटाकर वार निष्प्रभावी कर देते हैं। महाराज सांग चलाकर उसके हौदे को तहस नहस कर देते हैं। अपने घोड़े की अगली दोनों टाँगे हीरा सिंह के हाथी के मस्तक पर टिका कर उसके महावत को गिरा देते हैं। महावत युद्ध क्षेत्र से भाग जाता है। हीरा सिंह तुरन्त हाथी से कूद कर एक सैनिक का घोडा प्राप्त कर महाराज परमर्दिदेव के समक्ष आ कर अपनी खड्ग का वार महाराज पर करता है।महाराज उसके वार को अपनी ढाल पर रोक कर अपनी खड्ग का भरपूर वार हीरा सिंह करते हैं ,हीरा सिंह अपनी ढाल अड़ाता है। हीरा सिंह की ढाल कट जाने के साथ साथ उसकी हथेली में घाव आ जाता है।हीरा सिंह खीजकर अपनी तलवार का भरपूर वार महाराज पर करता है,महाराज भी अपनी तलवार के भरपूर वार से उसकी तलवार काट देते हैं,तलवार की केवल मूठ हाथ में रह जाती है। महाराज अपनी ढाल के वार के जोरदार धक्के से हीरा सिंह को घोड़े से गिरा देते हैं। भीष्म तुरन्त अपने घोड़े से कूद कर उसे दबोच लेते हैं। हीरा सिंह भीष्म की पकड़ से स्वयं को छुड़ाने का प्रयास करता है,किन्तु भीष्म अपने मुष्ठि एवं घूंसों के प्रहार से उसे शांत कर देते हैं। हीरा सिंह के बंदी बनते ही उसकी सेना का मनोबल टूट जाता है ,सेना आत्मसमपर्ण कर देती है। भीष्म हीरा सिंह को उसी प्रकार से जकड़ कर, दुर्ग की उसी काल कोठरी में ले जाकर रखते हैं।
महाराज परिमल हीरा पुर के राजभवन में दरबार लगाते हैं। हीरा सिंह को वहां लाया जाता है।उस पर कुमार भीष्म को अनैतिक रूप से बंदी बनाने के साथ -साथ दूसरे राज्यों से निर्वासित दुष्ट प्रवृति के लोगों को अपने यहाँ आश्रय व संसाधन देकर अन्य राज्यों में चोरी ,डाके ,उपद्रव व उत्पात कराकर अपने राज्य कोष की वृद्धि, करना यह दो आरोप लगाये जाते हैं।राजा हीरा सिंह अपने ऊपर लगाये आरोपों को सुनकर लज्जावश अपनी दृष्टि झुका लेता है।
महाराज परिमल कहते हैं,राजा हीरा सिंह आपने ये दो आरोप सुने जो स्वयं सिद्ध हैं। प्रथम आरोप में आपने मेरे कनिष्ठ भ्राता भीष्म को बंदी बनाकर,राजा होते हुए अपनी निकृष्ट प्रवृति से राजा की गरिमा को कलंकित किया है।आप ने यदि राज्योचित वीरोचित आचरण किया होता तो इतनी जन हानि न होती।यह कोई युद्ध नहीं था,यह तो राजाओं, क्षत्रियों की प्रिय मनोरंजक क्रीड़ा आखेट थी, जिसे आपने निरर्थक युद्ध का रूप दे दिया।आपने जो किया उसका परिणाम आपके सम्मुख है। आप अपनी ही राज्यसभा में बंदी रूप में मेरे सम्मुख उपस्थित हैं।आप वीर हैं,इसमें कोई सन्देह किसी को नहीं है,किन्तु वीरता का ये कैसा प्रदर्शन?यहाँ शत्रु कौन है?इस देव धरा आर्यावृत के समस्त भूप अपनी योग्यता अनुसार, अपने-अपने राज्यों का निर्वहन करने के साथ -साथ, अन्य राजाओं के साथ मैत्री एवं सौहाद पूर्ण संबन्ध रखें,यह इस काल खंड की अनिवार्य आवश्यकता है।हमारा भी भरसक यही प्रयास है कि हमारा व्यवहार व सम्बन्ध सबसे मधुर व गरिमा पूर्ण रहें। हम इसमें सफल भी रहे हैं,किन्तु आपके ऐसे आचरण से हमारे इस अभियान को निश्चित ही ठेस लगी है। हम यह विचार करने पर विवश हुए हैं,कि संभव है आर्यावृत के कुछ अन्य भूप भी बलाभिमान और अहंकार वश आप जैसा ही आचरण करें। यह सर्व विदित तथ्य है, कि वर्षों पूर्व हमने बलाभिमान में चूर उन समस्त राजाओं का मान मर्दन किया था,किन्तु उनके राज्य को अपने राज्य में समाहित नहीं किया। उनका राज्य उन्हें ही सौंपकर उनसे मैत्री सम्बन्ध स्थापित किये,तथा कभी भी उनकी स्वतंत्रता तथा संप्रभुता का उल्लंघन नहीं किया। सदैव उनसे समानता तथा सहायता का व्यवहार किया, जिसका हम आज तक निर्वाह कर रहे हैं,तथा जीवन पर्यन्त करेंगे।हम आपसे भी ऐसे ही व्यवहार की आशा करते हैं,(हीरा सिंह चौंक कर सिर उठाता है )किन्तु इसके लिए हमें आप पर विश्वास करना होगा,इसका क्या प्रमाण होगा कि भविष्य में आप ऐसा नहीं करेंगे?राजा हीरा सिंह अवाक् हो महाराज परिमल देखता रह जाता है। वह विश्वास नहीं कर पाता, कि मेरे आचरण के प्रतिकार में ऐसा आचरण। वह कहता है,महाराज नि:संदेह मेरा ये व्यवहार प्रत्येक दृष्टिकोण से निंदनीय अपराध है।मैंने राज्य मद में सत्ता तथा बल का अपने हितार्थ दुरूपयोग कर अपनी प्रजा तथा अन्य राज्यों की प्रजा को भी कष्ट दिया। अपने इन कृत्यों के लिए मुझे दुख तथा ग्लानि का अनुभव हो रहा है।में बंदी रूप में आपके समक्ष हूँ,अपने अपराध स्वीकार करता हूँ,आप जो दंड निर्धारित करेंगे मुझे स्वीकार हैं,चाहे वह मृत्यु दंड ही क्यों ना हो।राजा हीरा सिंह इतना कह कर सिर झुका लेता है। महाराज परिमल कहते हैं,राजा हीरा सिंह जी आपको अपने कृत्यों पर ग्लानि का अनुभव हो रहा है,यह हमारे लिए संतोष का विषय है, किन्तु हम आपकी वीरता का भी उचित परिप्रेक्ष्य में उपयोग करना चाहते हैं।वीरों को अपनी गरिमा के अनुरूप प्रदर्शन करना चाहिए धीरता,वीरता,दया,करुणा,न्याय व देशप्रेम जैसे सर्वोपरि गुण ही तो वीरों के आभूषण हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने क्षुद्र स्वार्थों के कारण आपस में ही युद्ध रत रहते हैं। हमारा प्रयास है कि हम अपनी मातृभूमि की अखण्डता स्वतन्त्रता व विकास के लिए कार्य करें। हम इसमें आपका सहयोग चाहेंगे। हम आपको आर्यावृत में बनी हुई आपकी छवि सुधारने का परामर्श देंगे। इस दिशा में आपका पहला प्रयास यह हो कि आप अपने द्वारा संरक्षित दूसरे राज्यों,प्रदेशों या प्रांतों में वांछित अपराधियों को, उनके द्वारा पीड़ित राज्यों को सौंप दें, ताकि वहां उन्हें उनके द्वारा किये अपराधों के अनुरूप दण्ड मिले। कहिये आपको स्वीकार है? (राजा हीरा सिंह एक बार सिर उठा कर महाराज परिमल पर दृष्टि डाल पुन: सिर झुका कर स्वीकारोक्ति भाव से "मुझे स्वीकार है "कहता है)।आप भविष्य में इस प्रकार के कर्मों से विमुख रहें,इसके प्रमाण स्वरुप अपनी पुत्री का विवाह हमारे कनिष्ट भ्राता,(मुस्कुराकर )अपने पूर्व बंदी भीष्म से कर उसका डोला सौंप दे। क्या आपको यह भी स्वीकार है। (राजा हीरा सिंह अचकचा कर महाराज के मुख पर दृष्टि डालता है,किन्तु उनकी गंभीर मुद्रा देख स्वीकार भाव से सिर हिलाता है।) राज्य सभा में कुछ पल के लिए सन्नाटा छा जाता है। आपके द्वारा व्यर्थ में थोपे गए युद्ध में हुई हानि के फल स्वरुप आपको अपनी आय का छठा भाग प्रतिवर्ष कर के रूप में महोबे के राजकोष में देना होगा(राजा हीरा सिंह के झुके हुए मुख पर एक क्षण के लिए क्रोध का भाव आता है,किन्तु अपनी परिस्थिति देख मान लेता है)आइये कृपया अपना आसन ग्रहण करें,हम स्वयं आपको आपके आसन पर आसीन करना चाहेंगे।हमारे प्रस्थान पर्यन्त हमारे अंगरक्षक आपकी सेवा में रहेंगे ताकि हम निश्चिंत रहें। महाराज परिमल के संकेत पाते ही राजा हीरा सिंह के बन्धन काट दिए जाते हैं। महाराज परिमल राजा हीरा सिंह से गले मिलकर राजा हीरा सिंह को राजसिंहासन पर आसीन कर उसके सिर पर राज मुकुट सुशोभित करते हैं। महाराज परिमल राजा हीरा सिंह से कहते हैं,कि राजा हीरा सिंह जी आपसे नम्र निवेदन है की शीघ्र ही विवाह सम्पन्न कराएं ताकि हम भी अपने राज्य को प्रस्थान कर वहां की व्यवस्था देखें । राजा हीरा सिंह अपने अधिकारियों को सम्बंधित आदेश देकर स्वयं रनिवास में आवश्यक वैवाहिक तैयारियों के लिए चला जाता है। महाराज परिमल भी अपने सहयोगियों के साथ विश्राम हेतु दुर्ग में लौट आते हैं। एक हरकारे को आवश्यक सन्देश देकर महोबे भेज दिया जाता है।
महाराज परिमल राजा हीरा सिंह की पुत्री राज कुमारी नंदिनी के डोले के साथ एक हज़ार हाथी पाँच हज़ार घोड़े दास-दासियाँ हीरे व अन्य बहुमूल्य रत्नों व कर के रूप में राज्य की आय का छठा भाग ले कर महोबे लौटते आते हैं। महोबे लौटने पर नवदम्पति का परम्परा अनुसार राज्योचित स्वागत किया जाता है। पूरे महोबे में विजय व विवाह के उपलक्ष्य में उल्लास पूर्वक उत्सव मनाया जाता है। भीष्म कुछ दिन महोबे में बिताकर महाराज परिमल व महारानी मल्हना से आशीर्वाद लेकर चंदेरी लौट जाते हैं। धीरे-धीरे सम्पूर्ण आर्यावृत में राजा हीरा सिंह जैसे कुख्यात राजा को जीत कर उसे वश में करने से महाराज परिमल की वीरता का पुन: यशगान होने लगता है।आर्यावृत के अन्य राजा महाराज परिमल को बहुमूल्य भेंटे भेज कर सम्मानित करते हैं।
कन्नौज में राठौर वंश भूषण महाराज विजय पाल की मृत्यु उपरान्त उनके ज्येष्ठ पुत्र जयचंद सिंहासन पर आसीन होते हैं। महाराज जयचंद के हाथ में विशाल राज्य की बाग़ डोर आते ही उनके आधीन राजा व सामंत आदि,अवसर का लाभ उठाते हुए स्वयं को स्वतंत्र घोषित करना प्रारम्भ कर देते हैं। निर्धारित कर देना बंद कर देते हैं। राज्य के जो अधिकारी कर एकत्र करने जाते हैं ,उन्हें भी युद्धोन्मुख होकर खाली हाथ लौटने पर विवश कर देते हैं। कुछ राजा व सामंत अपने संघ बना लेते हैं,जिससे राजा जयचंद से युद्ध के समय परस्पर सहयोग कर सकें।कन्नौज के राज्य कोष में शने:शने धन का अभाव होने लगता है।
महाराज जयचन्द के सम्मुख र्नित्य योजनायों में कटौती के प्रस्ताव प्रस्तुत किये जाने लगे,जनसाधारण व् अन्य लोककल्याण की योजनायों के लिए राज्यकोष से धन का आबंटन अवरुद्ध हो गया । कामरूप प्रखंड में जलप्लावन व कई स्थानों में दुर्भिक्ष के कारण, नागरिकों के पुनर्वास से सम्बंधित योजनायों के अभाव में स्थिति और विकराल हो गयी।स्थिति ये हो गयी की, महाराज जयचन्द की नाक के नीचे कन्नौज के ही कर्मचारी स्थिति से लाभ उठाकर भ्र्ष्टाचार में संलिप्त हो गए फलस्वरूप स्थानीय करों में भी उल्लेखनीय कमी आने से कन्नौज व समीपवर्ती स्थानों में भी स्थिति अराजक होने लगी।घाटों,मंदिरों,अन्य धार्मिक स्थानों से होने वाली आय व स्थानीय निकायों में भी भ्र्ष्टाचार व्याप्त हो गया। सैनिकों,पदाधिकारियों व अन्य कर्मचारियों के वेतन आदि में भी असुविधा होने लगी तो लोककल्याण अधिकारी ,धर्माधिकारी व सेनापति आदि ने महाराज जयचन्द को वास्तुस्थिति से अवगत कराया। महाराज जयचन्द तुरन्त एक उच्चस्तरीय बैठक बुलबाते हैं,जिसमें समस्त उच्च पदाधिकारी ,विश्वसनीय सुभेक्षु राजाओं ,सामन्तों ,सरदारों,मठाधीशों, समाज शास्त्रियों,विचारकों व अन्य गणमान्य व्यक्तियों से परामर्श करते हैं। बैठक में अधिकांश राजा सामन्त व सरदारों की अनुपस्थिति सबसे अधिक चिंतित करती है। अब कोई संदेह नहीं रह जाता है, कि अधिकांश राजा,सामन्त व सरदार विद्रोही हो चुके हैं। स्थितियां अत्यन्त गम्भीर हो गईं हैं, महाराज जयचन्द क्रोधावेश में सर्व प्रथम विद्रोह को कुचलने की कहते हैं.किन्तु महामंत्री ,अमात्य सेनापति आदि महाराज के इस विचार का अनुमोदन नहीं करते। महामंत्री कहते हैं कि , ''महाराज इससे तो स्थिति और भयावह हो सकती है। आप अभी युवा हैं,राजनीति युद्ध नीति में आपका अनुभव आर्यावृत में संदेह की दृष्टि से देखा जायेगा। आप यदि विद्रोह शमन के लिए सेना सहित प्रस्थान करेंगे तो संभव है शत्रु समूह राजधानी पर आक्रमण न कर दे। हमें उनकी स्थिति ,बल व उनकी भावी रणनीति का कुछ भी अनुमान नहीं है। राजकोष में धन का अभाव,अराजकता,भ्र्ष्टाचार,हमें इस स्थिति में किसी विश्वस्त,बलशाली राजा का सहयोग अपेक्षित है''। राजा जयचन्द महामंत्री से पूछते हैं ,कि हमारी ऐसी स्थिति में ऐसा कौन राजा है,जो हमारी स्थिति को जानते हुए ,परिस्थिति का लाभ न उठाते हुए भी उलटे हमारी सहायता करे ? ''ऐसा तो एक ही नृप मेरी दृष्टि में है '' महामंत्री कहते हैं ''जो धन बल राजनीति ,कूटनीति व युद्ध नीति में तो सबसे अग्रणी हैं ही,कन्नौज के प्रति उनके समस्त पूर्वजों का सम्मान भाव रहा है। मुझे पूर्ण आशा ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्वास है, की वे सूचना प्राप्त होते ही तुरंत हमारी सहायता का सम्पूर्ण निष्ठां से निर्वाह करेंगे। उन्हें मात्र आपका सन्देश मिलने की देर है ''। /
बक्सर के राजा वासुमान की मृत्यु के पश्चात ,बक्सर राज्य कि व्यव्स्था का भार दस्स राज व वत्स राज के किशोर कंधो पर आ जाता है।दोनों भाई बड़ी दक्षता के साथ इस उत्तरदायित्व का निर्वाह करने लगते हैं। मीर सैय्यद छुपता-छुपाता शहाबुद्दीन के प्रभाव क्षेत्र से दूर, सुरक्षित स्थान को खोजता हुआ भारत वर्ष में प्रवेश कर जाता है। वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो जाती है।मीर सैय्यद का बड़ा पुत्र रल्हन का स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगता है। मीर सैय्यद कई वैद्य-हकीमों से उसका उपचार कराता है , किन्तु कोइ लाभ नहीं होता। एक रात्रि को रल्हन इस संसार विदा हो जाता है।मीर सैय्यद पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है। साथ लाया धन भी समाप्त हो चुका होता है। जीवन और कठिन हो जाता है। मीर सैय्यद राजा जयचंद के बारे में जान कर ,कि अवश्य ही जयचंद की सेना में उसके योग्य कोई ना कोई काम मिल ही जाएगा। मीर सैय्यद परिवार सहित कन्नौज चल देता है। कन्नौज तक की लम्बी यात्रा,धन हीनता ऊपर से युवा पुत्र क़ी मृत्यु का शोक मीर सैय्यद का मनोबल टूट चुका होता है.,नित्य का ख़ान -पान ,बड़ा परिवार ,मीर सैय्यद एक -एक कर अपने प्रिय घोड़ों को औनें -पौनें बेंचकर, किसी तरह दैनिक व्यय कीं पूर्ती करता हुआ कन्नौज की दिशा में बढ़ता है। किन्तु भाग्य में तो कुछ और ही बदा था। मीर सैय्यद का स्वास्थय अक्समात बिगड़ जाता है। पूरे परिवार की आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है। छोटा पुत्र ताल्हा पिता के उपचार के लिये कई वैध्य -हकीमों को लेकर आता है,किन्तु जब बुरा समय आता है, तो कुछ भी अच्छा नहीं होता। उफने हुए नदी -नाले ,मुसला धार वर्षा ,निराश्रय परदेस में कोइ समीपी भी,नहीं और परिवार के मुखिया की यह दशा। क्यों कभी-कभी ईश्वर भी इतना कठोर हो जाता है। ताल्हा की गोद में सिर टिकाये मीर सैय्यद की दृष्टि अनन्त में टिक जाती है,आत्मा अनन्त में विलीन हो जाती है। पखेरू पिंजरा छोड़ कर उड़ जाता है। मीर सैय्यद सब दुखों से स्वतन्त्र हो जाता है। परिवार में चीख -पुकार मच जाती है। कौन किसको ढांढस बंधाये,जिस खंडहर में टिके थे ,उसके आस-पास के लोग आकर उनकी सहायता करते हैं।बेबस लाचार ताल्हा सैय्यद को ढाँढस बंधाते हैं। वे ग्राम वासी ताल्हा सैय्यद को परिवार सहित एक सुरक्षित स्थान पर ठहराते हैं,जो वर्षा ,धूप व जंगली जानवरों से सुरक्षित था। परदेश में अपरिचित अनजाने लोगों में निःस्वार्थ इतनी सहायता व सहानुभूति देख कर ताल्हा सैय्यद का हृद्य द्रवित हो जाता है। पिता के मृत्यु उपरांत किये जाने वाले संस्कारों के व्यय को वहन करनेके लिये, ताल्हा को अपने पिता का प्रिय अश्व " मेहरबान"को बेचना पड़ जाता है। कितनी लाचारी बेबसी का अनुभव हुआ जब मेहरबान को किसी और को सौंपा ,कितने भारी मन से अपने हाथों से किसी और को लगाम सौंपी,किन्तु मैहरबान किसी और के साथ जाने को राज़ी नहीं होता। जैसे ही वे उसे खींचने के लिये चाबुक मारने का यत्न करतें हैं ,ताल्हा का एक हाथ उस चाबुक और दूसरा हाथ स्वतः अपनी तलवार पर चला जाता है।ख़बरदार।।।।।का शब्द घोष वातावरण में गूँज उठता है। तुरंत ताल्हा को अपनी भूल का अनुभव होता है,ताल्हा कहता है,''मुआफ किजिएगा हम इन्हें अपनी औलाद से भी अज़ीज़ मानते हैं,अपनी नज़रों के रूबरु इनसे ऐसा सुलूक हम बर्दाश्त नहीँ कर पाएंगे,लिहाज़ा आप से गुज़ारिश है, कि हमारे सामने मेरे बच्चे पर हाथ ना उठायें,हम इसे समझाते हैं। ताल्हा मेहरबान से कहते हैं,"मेरे बच्चे तकदीर में हमारा तुम्हारा साथ बस यहीं तक था,आज से ये तुम्हारे नये मालिक हुए,इनकी भी उसी तरह ख़िदमत करना जैसी हमारी की। जाओ मेरे बच्चे ख़ुदा हाफ़िज़। ताल्हा मेहरबान के गले लग रोने लगता है,उसके गालों को चूम,पीठ को सहला कर खरीद दार से कहता है ,''अब आप बराए मेहरबानी फौरन मेहरबान को हमारी निगाहों से दूर ले जाएँ,कहीं ऐसा ना हो कि हम अपना फ़ैसला बदल देँ ,जाइए ले जाइए। मेहरबान जैसे सब कुछ समझ गया,सब कुछ जान गया,बस एक बार हिनहिना कर,आँखोँ में आंसू भर गर्दन झुकाये चुप चाप अपने नये मालिक के साथ चल देता है। ताल्हा उसे डबडबाई आँखों से कुछ देर तक अपने से दूर जाता देखता है,मेहरबान भी एक बार गर्दन मोड़ कर ताल्हा को देखता है। ताल्हा मुड़ कर तेजी से अपने डेरे पर आकर फूट-फूट कर रोने लगता है। उसे ऐसा करते देख उसकी मां तुरन्त उसके पास आकर सिर पर हाथ फेरते हुए पूछतीं हैं,अब क्या हुआ मेरे बच्चे ?ताल्हा रुंधे गले से केवल इतना ही कह पाता है ,"अम्मी मेहरबान ''। अम्मी भी'' मेहरबान मेरा बच्चा''कह कर रोने लगतीं हैं। तत्त पश्चात तुरंत संयत होकर कहती हैं, कोइ बात नहीं मेरे बच्चे,ग़म ना कर बस समझ ले तेरे भाईं और अब्बू की मानिन्द उसे भी तक़दीर नें हमसे जुदा कर दिया ,हौंसला रख मेरे बच्चे,बहादुर यूँ रोया नहीं करते ।चल उठ और अपने फ़र्ज़ों को अंजाम दे,अब तुझे ही तो सब देखना है। ताल्हा अपने आंसू पौंछते हुए कहता है कि,अम्मी मेहरबान को देखकर यूँ लगता था मानो अब्बू उस पर सवार होंं। अम्मी कहती हैं ,में जानती हूँ मेरे बच्चे तू बहुत ही नर्म दिल और जज़बाती है,लेकिन ज़िन्दगी जज़्बातों के ज़ेरे साया गुज़र नहीँ होती। तेरी ज़िन्दगी की असल जंग तो अब शुरु हुई है,जिसे तूने हर हाल में फतह करना है। हम सबको तुझ पर पूरा यक़ीन है,मेरी और हम सबकी दुआएं तेरे साथ हैं। ताल्हा अपनी अम्मी की कदम बोसी करता है। अम्मी कहतीहैं,उठ और अपने फ़र्ज़ों से रूबरू होने की तैयारी कर,तेरे अब्बा जो काम छोड़ गये हैं, तुझे उन्हें मुक़म्मिल करना है। ताल्हा सैय्यद अपने पिता के मृत्यु उपरांत होने वाले रीति -रिवाज़ों को सम्पन्न करता है। कुछ दिन आस -पास अपने योग्य व्यवसाय की खोज करता है,किन्तु निराशा हाथ लगती है। वह भी अपने पिता की इक्षा अनुसार राजा जयचंद से मिलने का निर्णय करता है। इस संदर्भ में वह अपनी माँ से भी विचार-विमर्श करता है। माँ भी उसे ऐसा ही करने का परामर्श देती है। अगले ही दिन ताल्हा ग्राम-वासियों को उनकी सहायता व सद्भावना का धन्यवाद कर, अपने कुटुम्ब और सामान इत्यादि को घोड़ों पर लाद कर कन्नौज क़ी दिशा मैं चल पड़ता है। रात एक सराय में गुज़ार कर, भोर होते ही यात्रा पुनः प्रारम्भ हो जाती है।संध्या झुट पुटाने लगती है। अकस्मात एक दस्यु दल इनके पीछे पड़ जाता है। ताल्हा सैय्यद अपने कुटुम्ब को आगे कर ,तेजी से घोड़े दौड़ाने का आदेश देता है, व स्वयं अपने दल के पीछे रह कर दस्यु दल से अपने कुटुम्ब की रक्षा करने का निर्णय लेता है। ताल्हा सैय्यद अकेला, और दस्यु दल संख्या में कहीं अधिक।ताल्हा सैय्यद अवसर देख एक -एक से दौड़ते -दौड़ते ही खड्ग युद्ध करने लगता है। इस प्रकार ताल्हा सैय्यद दस्यु दल के कुछ सदस्यों को मार गिराता है,किन्तु स्वयं भी बुरी तरह घायल हो जाता है। दस्यु सरदार दल के अन्य सदस्यों से आगे बढ़ कर ताल्हा सैय्यद के कुटुम्बी जनों से घोड़े छीन लेने का आदेश देता है,व स्वयं ताल्हा पर आक्रमण कर देता है।लड़ते- चलते,लड़ते -चलते सब गंगा के तट पर पहुँच जाते हैं। दस्यु दल के कुछ सदस्य बच्चों व स्त्रियों से घोड़े छीनने में सफल हो जाते हैं। स्त्रियां अपनी शील कि ऱक्षा हेतु उफनती गंगा में कूद पड़ती हैं। चीख -पुकार मच जाती है।
चीख-पुकार सुन, पास ही में घोड़ों पर सवार दो नवयुवकों का ध्यानउस तरफ जाता है,वे तुरन्त वहाँ पहुंच जाते हैं। उनमें से एक तुरंत गंगा नदी मैं डूबते हुओं को बचाने के लिए कूद पड़ता है, तथा दूसरा ताल्हा सैय्यद की रक्षार्थ दस्यु सरदार से भीड़ जाता है। ताल्हा सैय्यद सहायता पाकर दूने उत्साह से लड़नें लगता है।अब दल के दूसरे सदस्य भी आकर इन दोनों पर टूट पड़ते हैं। नदी में कूदने वाला नव युवक ,नदी मैं डूबते ताल्हा सैय्यद के परिवार के सदस्यों की प्राण रक्षा करने में सफल हो जाता है। अब वह भी दस्यु-दल से भिड़ जाता है,अकस्मात वह देखता है कि ,ताल्हा सैय्यद निढाल हो कर गिर पड़ता है,और दस्यु सरदार ताल्हा सैय्यद पर अन्तिम वार करने ही जा रहा है,वह विद्दुत गति से लपक कर दस्यु सरदार की खड्ग का वार अपनीं तलवार पर झेलकर,बाज़ी उलट देता है। ताल्हा सैय्यद को गिरा देख कर,परिवार में पुनः चीख -पुकार मच जाती है। दोनों नवयुवक अब अप्रत्याशित गति से दस्यु दल का सफाया करने लगतेहैं। कुछ ही क्षणों में समूचा दस्यु दल समाप्त हो जाता है। दोनों ताल्हा सैय्यद के समीप जाकर उसकी दशा का निरीक्षण करते हैं। रक्त से लथ -पथ ताल्हा सैय्यद की सांस चलती देख,एक नवयुवक तुरन्त घोड़े पर सवार हो,एड़ लगा वहॉं से चला जाता है,दूसरा ताल्हा सैय्यद के परिवार के पास आकर उन्हें ढांढ़स बंधाता है,सांत्वना देता है। इतने में कुछ पालकियां व कुछ लोगों के साथ, वह पहला नवयुवक लौट आता है।रक्त-रंजित घायल चेतना शून्य ताल्हा सैय्यद को एक पालकी में व स्त्रियोँ बच्चोँ को दूसरी पालकियों मेँ बिठाकर अपने किले में ले आते हैं। वहां पहले से ही उपस्थित वैद्य -चिकित्सक ताल्हा सैय्यद के उपचार में जुट जाते हैं।नवयुवकों के आदेश पर परिवार के सदस्यों की रहने व ख़ाने-पीने की समुचित व्यवस्था की जाती है।
दोनों नवयुवक ताल्हा सैय्यद की स्थिति व परिवार की व्यवस्था की समीक्षा के हेतू दिन में कई बार फेरे लगाते हैं। कई दिन तक ताल्हा सैय्यद की स्थिति जस की तस रहती है।तत्पश्चात वैद्य-चिकित्सकों के अनथक प्रयासों से ताल्हा सैय्यद की देह मेँ शनेःशनेः शक्ति का संचार होने लगता है। अंततः एक माह पश्चात एक कराह के साथ ताल्हा सैय्यद अपने नेत्र खोल देता है।परिवार में हर्षो-उल्लास छा जाता है।पूरा परिवार ताल्हा सैय्यद के इर्द-गिर्द इकठ्ठा हो जाता है। अपने परिवार को सकुशल समक्ष देख कर ताल्हा सैय्यद की आँखें छल-छला आती हैं। माँ तुरंत ताल्हा सैय्यद की आँखेँ पौंछते हुए कहती हैं कि,अल्लाह का लाख-लाख शुक्र है मेरे बच्चे जो आज तुम्हें होश आ गया,अलबत्ता हम तो हालात से बेज़ार हो चुके थे,हिम्मत हार चुके थे,लेकिन वो बड़ा कारसाज़ है,उसने हम मज़लूमो की दुआयें क़ुबूल कर,हमारी हिफाज़त के लिये ऐन वक्त पर ना जानें कहां से दो फरिश्तों को भेज तुम्हारी जान बचाई ,तुम्हारे इलाज़, पूरे कुनबे के लिए सिर पर छत और रोटी के साथ-साथ हर जरुरत का मुकम्मिल इंतज़ाम किया।आज उस खुदा की रहमत पर हमारा यकीन दोबाला हो गया।आज हम सब शुक्राने की नमाज़ अदा करेंगे।ताल्हा सैय्यद कहता हैकि ,अम्मी मैं उन फरिश्तों के दीदार करना चाहता हूँ। अम्मी कहती हैं,बिलकुल मेरे बच्चे ,वो दोनोँ भी तुम्हारी सेहत के लिये ख़ास फिक्रमंद हैं,तुम्हारे होश मैं आने की ख़बर मिलते ही वे दोनों दौड़े चले आएँगे।ताल्हा सैय्यद और बातें करना चाहता है,लेकिन पास खड़ा वैद्य कहता है कि,अब आप अधिक न बोलें,बोलना आपके स्वास्थय के लिये हित कर नहीँ है। वैद्य अम्मी से भी कहता है कि,अब आप भी आराम करें।
संध्या समय जैसे ही उन दोनों नवयुवकों को ताल्हा सैय्यद के चैतन्य होने का समाचार मिलता है। वे तुरंत ही ताल्हा सैय्यद के पास पहुंचते हैं। ताल्हा सैय्यद की अम्मी ताल्हा से कहतीं है,कि बेटे यही वे दोनोँ फ़रिश्ते हैं,जिनका मैनें तुमसे ज़िक़्र किया था। ताल्हा उठने का प्रयत्न करता है,किन्तु एक नवयुवक तुरन्त उसे सहारा देकर ताल्हा की कमर के नीचे तकिया लगा कहता है,अभी आप उठने का प्रयत्न ना करें।आपको पूर्ण विश्राम की आवश्यक्ता है,आप पहले पूर्ण रुप से स्वस्थ हो जाएँ। ताल्हा अपने दोनों हाथ उठाने का प्रयत्न करता है। दोनों उसका एक-एक हाथ पकड़ लेते हैं। ताल्हा कहता है "मेरे मेहरबान,मेरे मोहसिन आपने मुझ बे यारो-मदद गार मुस्तकिल मौत के हाथों में पहुंचे, इस पठान को ज़िन्दगी बख्स कर, जो एहसान हम पर किया है,इस ज़हान में उसकी मिसाल मिलना नामुमकिन है,और ना ही इसका कोइ बदला चुकाना ही मुमकिन है। इस लिए आज ये ताल्हा सैय्यद अपने खुदा को हाज़िर- नाज़िर मान कर ये वादा करता है कि,अब ये जान आप ही की अमानत है।अब ये आप पर मुनहसर है कि ,आप मुझे अपना दोस्त मानें या ग़ुलाम। मैं और मेरा पूरा कुनबा आप का ग़ुलाम है।नवयुवक कहता है कि,आप जैसा बहादुर दोस्त पाकर हमें अति प्रसन्नता है।ताल्हा सैय्यद कहता है , क्या मैं अपने मेहरबान दोस्तों के नाम जान सकता हूँ ?दूसरा नवयुवक कहता है कि ,यह मेरे बड़े भ्राता दस्स राज,और मैं इनका अनुज वत्स राज। तभी वैद्यराज आगे बढ़कर दस्स राज की तरफ संकेत कर कहता है, कि ये इस राज्य बक्सर के राजा हैं। ताल्हा सैय्यद पलंग से नीचे पांव रखने के प्रयत्न मेँ अस्थिर हो जाता है ,दस्स राज तुरन्त ताल्हा सैय्यद को सम्भाल कर कहते हैं,ये आप क्या कर रहे हैं ?आप लेटे रहिये। ताल्हा सैय्यद कहता है कि ,ये मेरी कितनी बड़ी बदकिस्मती है कि ,मेरे राजा मेरे सामने खड़े हैं ,और मैं उठ कर उनका इस्तकबाल भी नहीं कर सकता। दस्स राज कहता है की ,अब हम मित्र हैं ,और मित्रों में औपचारिकता कैसी?। ताल्हा सैय्यद को पलंग पर लिटाते हुए कहते हैं ,आप आराम करें ,अभी शरीर को कष्ट ना दें ,और मित्र अब कोइ किसी भी प्रकार की चिंता ना करें। आप हमारे मित्र हैं,हमारी हर वस्तु पर आपका भी उतना ही अधिकार है,जितना हमारा। कभी भी किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो आदेश करें।हमारी कामना है कि ,आप शीघ्रता से स्वास्थय लाभ करेँ।
।।राजा परिमल को उड़न घोड़ों की प्राप्ति।।
राजा परिमल एक रात्रि रानी मल्हना के साथ भ्रमण की इक्षा से महल से बाहर आते हैं। घूमते-घूमते वे कीर्ति सागर पर पहुँच जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु,ज्येष्ठ माह,रानीं मल्हना की इक्षा सरोवर में स्नान करने की होती है। राजा परिमल भी सागर किनारे एक शिला पर बैठ कर मन्द्र स्वर में रागिनी छेड़ देते हैं। रानी मल्हना स्नान करते-करते सागर के दूसरे छोर तक पहुँच जाती हैं। उसी समय आकाश मार्ग से विमान में सवार देवराज इन्द्र के दरबार की कुछ अप्सराएँ भी सागर के निर्मल जल से आकर्षित हो, स्नान की इक्षा से,अपने विमान को आकाश में ही रोक कर,उड़ते हुए एक-एक कर सागर के जल में उतर जातीं हैं। अकस्मात् उनकी दृष्टि स्नान करती हुई रानी मल्हना पर पड़ती है।वे मल्हना के रूप से आश्चर्य चकित हो,उसे भी अप्सरा जान तैरती हुईं,उसके समीप आ कर उसका परिचय प्राप्त करना चाहतीं हैं।ये जान कर की वह वहां के राजा परिमल की महारानी है,अप्सरायें और भी आश्चर्य चकित हो जातीं हैं,एक मानवी और इतनी रुपवती?इसके रुप के समक्ष तो हमारा रुप कुछ भी नहीं। अप्सराएं तुरंत वहां से पलायन कर,स्वर्ग पहुँच,इन्द्र सभा में अपने नृत्य प्रदर्शन के लिये प्रस्तुत होती हैं,किन्तु उनके अंग में वह लोच नहीं,ना ही स्वर में वह माधुर्य। देव राज इन्द्र चित्र सेन से कारण पूछते हैं ,चित्र सेन एक अप्सरा से इसका कारण जानने का प्रयास करते हैं। अप्सरा चित्र सेन को को अपने पृथ्वीं लोक जाने व मल्हना के रुप का वर्णन करती है। चित्र सेन भी आश्चर्य चकित हो कर देव राज इन्द्र से मल्हना के अत्यन्त रुप वती होने को ही इसका कारण बताते हैं। देव राज इन्द्र मल्हना के दर्शन के लिये लालायित हो उठते हैं। देव राज इन्द्र, चित्र सेन से मल्हना के दर्शन का उपाय ढूंढने कोकहते हैं।चित्र सेन कुछ दिन राजा परिमल की दिनचर्या पर दृष्टी गड़ाए रखते है,और अंत में एक अनूठा उपाय ढूंढ ही निकालते हैं। एक दिन राजा परिमल अपने सेना पति व कुछ सैनिकोँ के साथ जंगल विहार की इच्छा से भ्रमण के लिये निकलते हैं। जंगल में कुछ दूर निकलने पर अकस्मात भय से आक्रांत,रंभाती ,डकराती एक गाय पर उनकी दृष्टि पड़ती है,जो प्राण रक्षा हेतू राजा परिमल की ओर ही दौड़ती आ रही है। राजा परिमल एक सिंह को उसके पीछे लगा देख,तुरन्त ही अपने धनुष पर बाण चढ़ा कर सिंह को लक्ष्य कर छोड़ते हैं। बाण सिंह के पृष्ठ भाग में लगता है। बाण लगते ही सिंह का रुप धरे इन्द्र अपने वास्तविक रुप में आ जाते हैं ,और गाय का रुप धरे चित्र सेन भी अपने को प्रकट कर देते हैं। देवराज इन्द्र राजा परिमल से कहते हैं कि ,आप के विषय में जो सुना था,सत्य ही सुना था कि आप वास्तव में धर्म ध्वजा वाहक हैं। राजा परिमल अपने अश्व से उतर कर हाथ जोड़ उनका अभिनंदन करते हैं। देवराज इन्द्र कहते हैं कि आप जैसा मित्र पाकर हम अनुग्रहित हुए। राजा परिमल देवराज इन्द्र को अपने महल में आमंत्रित कर महारानी मल्हना को भी दर्शन दे कर कृतार्थ करने कि प्राथर्ना करते हैं,जिसे देवराज इन्द्र सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। अंततः देवराज इन्द्र यही तो चाहते थे।महल में आकर राजा परिमल व महारानी मल्हना देवराज इन्द्र व चित्र सेन का यथोचित स्वागत सत्कार करते हैं। रानी मल्हना को देख देवराज इन्द्र व चित्र सेन आश्चर्य चकित हो जाते हैं।देवराज इन्द्र राजा परिमल को प्रथम भेंट स्वरुप अपने हाथी ऐरावत का सहोदर हाथी पच्शाब्द उपहार में देते हैं,जो कि,रुप व गुण में ऐरावत के समान था। देवराज इन्द्र मित्रता की आड़ में कई बार रानी मल्हना का सौन्दर्य पान करने की इच्छा से राजा परिमल से मिलने आते रहते हैं ,तथा उन्हेँ भेंट स्वरुप अश्व पपीहा,रानी मल्हना के लिये देव दुर्लभ नौलखा हार,अनुपम नर्तकी लाक्षा ,बिजुलिया खांडा व पीली चादर प्रदान करते हैं। देवराज इन्द्र के बार-बार आने से उनके घोड़े उच्चैश्रवा व राजा परिमल की घोड़ी हिरिणी के मिलन से रस बेंदुल,करीलिया,हरनागर,मनुरथा नामक घोड़े व हीरोंजिनी व कबूतरी नामक घोड़ियाँ उत्पन्न होती हैं। ये सब घोड़े-घोड़ियाँ देवराज इन्द्र के घोड़े के समान ही आकाश में उड़ने में सक्षम थे।एक दिन देवराज इन्द्र राजा परिमल की अनुपस्थिति में,राजा परिमल का वेश धर रानी मल्हना के दर्शन के लिये आते हैं। उस दिन एकादशी होने से रानी मल्हना आश्चर्य चकित हो पूछ बैठती है,कि महाराज यह कैसा अधर्म,आज एकादसी के दिन मेरे कक्ष में आपका आगमन ?तत्पश्चात मल्हना देखती है,कि उनके पैर भी धरती को नहीं छू रहे हैं,वातावरण आद्र होने के पश्चात् भी उनके भाल पर श्रम कण (पसीने की बूंदें )भी नहीं हैं। रानी मल्हना अपने सतीत्व के बल से देवराज इन्द्र को पहचान कर,हाथ जोड़ कर कहती है कि,प्रभु आप को महाराज का रुप धरने की क्या आवश्यकता आ पड़ी ?,आप तो हमारे आराध्य हैं। देवराज इन्द्र लज्जा वश निरुत्तर हो कहते हैं कि,में तो तुम्हारे पतिव्रत धर्म की परीक्षा ले रहा था,जिसमेँ तुम शत प्रतिशत सफल रहीं,मुझसे कोइ वर माँगो। महारानी मल्हना कहती है,कि प्रभु मुझे आप समान पुत्र की प्राप्ति हो व सदैव आप की कृपा हम पर बनी रहे। देवराज इन्द्र " एवमस्तु " कह कर अंतर्ध्यान हो जाते हैं, तथा इस घटना के उपरांत फिर कभी नहीं आते।
राजा परिमल अपनी रानी परम सुंदरी मल्हना के साथ जीवन को भरपूर आनंद लेते हुए व्यतीत करने लगते हैं।जीवन संपूर्ण प्रतीत होता है,तपस्वी का कथन अब राजा परिमल के जीवन में सत्य हो उठता है।
चंदेरी में,जहाँ की व्यवस्था राजा परिमल के कनिष्ठ भ्राता भीष्म का उत्तरदायित्व है। एक दिन राजा भीष्म मृगया हेतु घोड़े पर सवार हो कुछ सैनिकों को साथ ले जंगल में निकल जाते हैं।मृगया उन दिनों राजाओं का प्रिय खेल हुआ करता था। इसमें कई -कई दिन जंगल में व्यतीत हो जाते थे। जब तक इससे ऊब न हो जाये तब तक वापसी का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।( मृग्या सेना के प्रशिक्षण के लिए तथा युद्ध की परिस्थितियों के वातावरण से भिज्ञ होने के लिए भी आवश्यक होती थी,राजा की अनुपस्थिति में राज कार्य प्रभावित न हों इसके लिए राजधानी से मृगया हेतू स्थापित शिविरों तक आवश्यक्ता अनुसार हरकारे द्वारा चिठ्ठी-पत्री व संदेशों का आदान प्रदान किया जाता था। ) राजा भीष्म भी जंगल में हिंसक जंतुओं को मारते मृगया का आनंद लेते जंगल में विचरण करते हुए दूर निकल जाते हैं।
शिकार खेलते हुए अपने सेनिकों से आगे निकल एक विशाल विकराल जंगली वराह (सूकर) के पीछे लग उस पर तीर से वार करते हैं,तीर वराह को लगता है,वराह तीर से घायल हो अपने प्राण बचाकर और तेजी से भागता है। राजा भीष्म भी तीर-कमान लिए वेग से उसके पीछे लग जाते हैं। राजा भीष्म के तीर से घायल हो तथा थकान से चूर हो वराह गिर जाता है। राजा भीष्म उसका प्राणान्त करने के लिए दूसरा तीर संधान करते हैं,तभी सावधान की आवाज उनके कानों में पड़ती है,राजा भीष्म उस कर्कश आवाज़ की दिशा में देखते हैं।घोड़े पर सवार एक सैन्य दल उनकी ही दिशा में बढ़ा आ रहा है,कुछ पैदल सैनिक भी हैं। उनमें से एक जो अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होता है,आगे बढ़कर राजा भीष्म से पूछता है,तू ने मेरे राज्य की सीमा में घुस कर शिकार खेलने का साहस कैसे किया ?क्या तुझे पता नहीं है की मेरे राज्य में अनधिकृत प्रवेश कर शिकार खेलना कितना बड़ा अपराध है। इस अपराध के लिए तुझे बंदी बनाकर दण्ड दिया जाएगा। राजा भीष्म एक तो उसकी अशिष्ट वाणी सुन,दूसरे शिकार हाथों से निकलता देख गुस्से में भर जाते हैं,जो बाण उन्होंने कमान से उतार लिया था,तुरन्त क्षण भर में उसे संधान कर वराह का प्राणान्त कर देते हैं। इतने में पीछे छूट गयी उनके सैनिक भी आ जाते हैं।राजा भीष्म कहते हैं, शिकार तो हम राजाओं का खेल हुआ करता है,और तुम कौन' हो ?जो यह भी नहीं जानता कि सम्पूर्ण आर्यव्रत में शिकार कहीं प्रतिबन्धित नहीं है,शिकार खेलते हुए सीमाओं का अतिक्रमण तो अति साधारण बात है,उल्टे हमें आया जान वहां का राजा हमारा आदर-सत्कार कर हमें मृगया हेतु संसाधन उपलब्ध करा स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता,किन्तु तुम अशिष्ट अभद्र राजा तो नहीं लगते,हाँ.,,, आचरण से किसी दस्यु दल के सरदार अवश्य लगते हो।
(राजा हीरा सिंह आर्यावृत का अति कुख्यात राजा होता है। हीरा सिंह अपने राज्य के चोर-डाकुओं के साथ-साथ अन्य राज्यों के भी असामाजिक तत्वों को राज्याश्रय प्रदान कर,उसकी एवज में उनसे उनकी लूट आदि में अपना प्रतिशत नियत कर अपनें राज्य कोष की वृद्धि करता व अपने राज्य के अतिरिक्त दूसरे'अन्य राज्यों में लूट,पाट डकैती,अपहरण आदि में उनकी हर प्रकार से सहायता करता। अपनी इन्ही आदतों के कारण वह सम्भ्रांत राजाओं की दृष्टि में हीन दृष्टि से देखा जाता। आर्यावृत के राजे-महाराजे हीरा सिंह से किसी प्रकार का सम्बन्ध रखने से बचते थे,अनैतिक कार्यों से अर्जित धन से हीरा सिंह ने विशाल सेना खड़ी कर ली थी। बड़े राजाओं अथवा अपने से शक्ति शाली राजाओं से वह कभी टकराता नहीं था,किन्तु छोटे राजाओं की नाक में
दम करे रखता।कई बार छोटे राजाओं ने समूह बनाकर इसे काबू करना चाहा,किन्तु असफल रहे। बड़े राजा ऐसे उच्श्रंखल राजा पर किसी प्रकार की कार्रवाही को अपनी हेठी समझते। इससे वह और भी ढीठ हो गया था ) राजा भीष्म के इतना कहते ही हीरा सिंह आग-बबूला हो कर अपने सैनिकों को राजा भीष्म को पकड़ने का आदेश देता है। भीष्म के सैनिक आगे बढ़ कर हीरा सिंह के सैनिकों से भिड़ जाते हैं,हीरा सिंह तलवार ले कर भीष्म पर झपटता है। दोनों ओर से घमासान मच जाता है। हीरा सिंह भीष्म से युद्ध करते हुए शीघ्र पस्त हो कर अपने सैनिकों को और वेग से लड़ने का आदेश दे कर स्वयं पीछे हट जाता है। राजा भीष्म हीरा सिंह के सैनिकों को गाजर मूली की तरह काटने लगते हैं। हीरा सिंह भाग कर अपने प्राण बचाता है। राजा भीष्म अपने घायल सैनिकों को उठवा कर व अपने शिकार को एक घोड़े पर लदवा कर अपने शिविरों की तरफ लोट पड़ते हैं। अभी राजा भीष्म कुछ ही दूर जा पाये होते हैं, कि हीरा सिंह विशाल सेना ले कर भीष्म पर आक्रमण कर देता है। राजा भीष्म अपने कुछ सैनिकों को घायलों को शिविर तक पहुँचाने का आदेश दे कर, तथा कुछ वीर सैनिकों को साथ ले कर हीरा सिंह की सेना से भीड़ जाते हैं।भीष्म के सैनिक भी भयंकर मार-काट मचाते हैं,किन्तु कहाँ कुछ सैनिक और कहाँ विशाल सेना।धीरे -धीरे भीष्म के सारे सैनिक काम आ जाते हैं। राजा भीष्म यह देख और वेग से लड़ते हैं। राजा भीष्म को शिविर में वापिस ना आया देख वे सैनिक भी भीष्म की सहायता के लिए आते हैं ,किन्तु वे भी खेत रहते हैं,राजा भीष्म अकेले पड़ जाते हैं। युद्ध क्षेत्र में हर तरफ क्षत-विक्षत शव ही शव दिखाई पड़ते हैं,भूमि रक्त से कीचड़ बन जाती है.दोपहर से शाम हो जाती है। अकेला एक योद्धा कब तक लड़ता। थकान से चूर हो जाते हैं,किन्तु सामने फिर भी विशाल सेना,बाहु शिथिल हो जाते हैं.अश्व भी पस्त हो जाता है। राजा भीष्म मूर्छित हो घोड़े पर गिर जाते हैं,तलवार हाथ से छूट जाती है। राजा भीष्म को रस्सियों से जकड़ कर बंदी बना लिया जाता है।उन्हें वहां से सौ कोस की दूरी पर बने एक दुर्गम किले में ले जाकर कैद कर दिया जाता है।
अगले ही दिन हरकारा जब राजा भीष्म के लिए चिठ्ठी-पत्री व कुछ सन्देश लेकर शिविर पर पहुंचता है, तो वहां घायलों को देख, तथा युद्ध का वृतांत सुन स्तब्ध रह जाता है। हरकारा तुरन्त वहां से कूच कर, चंदेरी पहुँच कर,महामंत्री व अन्य सभासदों को वस्तुस्थिति से अवगत कराता है।महामंत्री तुरंत ही उसी हरकारे द्वारा इस अनिष्ट की सूचना महाराज परमर्दी देव के पास महोबे भिजवाते हैं। परमर्दि देव यह समाचार सुन कर चिंतित हो जाते हैं। तुरन्त राजज्योतिषी को बुलवा कर परामर्श किया जाता है।राजज्योतिषी गणना कर बताते हैं की नि:संदेह भीष्म के प्राण संकट में हैं,शीघ्र कार्यवाही करनी होगी विलम्ब घातक होगा। राजा परिमल तुरंत सभासदों से परामर्श कर गुप्त चरों को नाना प्रकार से प्रलोभित कर भीष्म की खोज में भेज देते हैं। गुप्त चर राजा भीष्म की मृगया की दिशा में जा कर जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। एक गुप्तचर भटकते -भटकते उस जंगल में पहुँच जाता है,जिस किले में राजा भीष्म को बंदी बनाकर रखा था।वह जल तथा भोजन की खोज में वहां पहुँच कर वहां पहरा दे रहे सैनिकों से जल तथा भोजन प्राप्ति की याचना करता है। वहां पहरा दे रहे सैनिक गुप्तचर को पानी दे कर कहते हैंकि ,भाई भोजन के विषय में तो हम तुम्हारी सहायता नहीं कर सकते,हाँ,,,,यदि तुम थोड़ी देर यहीं विश्राम करो तो हमारे लिए जो भोजन आएगा उस में तुम भी सहभागी हो जाना,अन्यथा नगर तो यहाँ से बहुत दूर है।गुप्तचर कहता है,आप भद्र पुरुषों ने मुझ पथिक पर बड़ी कृपा की,अन्यथा मेरी यात्रा,भूख और इस चिलचिलाती धूप से क्लांत हो कर ना जाने क्या दशा होती।भोर से पूर्व ही मेने यात्रा प्रारम्भ कर दी,अपरान्ह होने आया मार्ग में न कोई नगर,ग्राम,बस्ती,हाट ही मिला जहाँ कहीं भोजन,जल-पान की कुछ व्यवस्था हो जाती।इस घने जंगल में पग-पग पर जंगली जानवरों का भय अलग। लगता है मुझसे मार्ग चिन्हित करने में कुछ भूल हो गयी,किन्तु आप लोग यहाँ इस निर्जन घने वन में,नगर से दूर इस किले की रक्षा में ,,,,,,?ऐसा विशेष क्या है इस किले में जिसके चोरी होने का भय हो ?पग-पग पर सजग -सन्नद्ध प्रहरी।यदि आपको असुविधा न हो तो बताने का कष्ट करें मुझे तो विष्मय हो रहा है। आप लोग यहाँ अपने परिवार से दूर ,,,,,भई मुझे तो अत्यन्त कौतुहल हो रहा है। सैनिक कहते हैं, भाई ऐसा यहाँ कुछ नहीं है जिसे कोई लूट या चुरा ले जाये,और ,,,,वो भी हमारे राज्य से,ऐसा तो (हंस कर )संभव ही नहीं है। हाँ एक बंदी अवश्य है,जिसने हमारे महाराज से युद्ध करने का साहस किया,वह भी कुछ मुट्ठी भर सैनिकों के साथ। बेचारा ,,,,जानता नहीं था, किस राजा से भिड़ रहा है ? व्यर्थ ही फँस गया। तभी दूसरा सैनिक बोल उठा ये तो रहने दो लाल सिंह,यदि तुम उस दिन युद्ध क्षेत्र में होते, तो ऐसा नहीं कह रहे होते। इस बंदी ने जो अनुपम वीरता दिखाई, निसंदेह अदभुत। मैं ने अपने जीवन में ऐसी वीरता,ऐसा युद्ध कौशल नहीं देखा। उस अकेले ही वीर ने हमारी सेना को कितनी क्षति पहुंचाई, हज़ारों वीरों को मृत्यु के घाट उतारा । अपनी साथियों के मृत होने के पश्चात् भी,वह अकेला वीर तीन पहर तक तलवार चला कर, अद्भुत अविस्मरणीय प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए मूर्च्छित हो गया,मुझे तो यह वीर निःसंदेह किसी उच्च कुल का राजपुरुष प्रतीत होता है। देख लेना लाल सिंह इसके सम्बंधी शीघ्र ही इसका पता लगा कर ,अवश्य ही इसकी मुक्ति का कोई ना कोई उपाय करेंगे। लाल सिंह ने कहा क्या उपाय करेंगे ?हमारे महाराज से युद्ध क्या कोई हंसी ठट्ठा है। और फिर इसके कारण महाराज ने कितनी हानि उठाई,क्या इसे यूँ ही छोड़ देंगे ?युद्ध करने का साहस तो इस आर्यावृत में चक्रवर्ती सम्राट कन्नौज नरेश जयचंद के अतिरिक्त कोई कर नहीं सकता। और उन्हें क्या पड़ी, जो व्यर्थ ही किसी के फटे में टांग अड़ाएं ?इस बंदी से उनका क्या लेना देना ? हाँ..... यदि कोई और हुआ तो हमारे महाराज अपनी हानि की भरपाई के बाद स्वतंत्र करने हेतु विशाल राशि की प्राप्ति अवश्य करेंगे देख लेना (हँसता है )गुप्त चर ने कहा नि;संदेह विशेष बंदी ही है,जिसके लिए इतनी सुरक्षा। किन्तु यदि इसकी सूचना पाकर इसके सम्बन्धी यहाँ सेना सुसज्जित कर आक्रमण कर दें ,और यदि वे भी ऐसे ही वीर निकले तो ?ये तो अकेला ही था,किन्तु यदि उस सेना में और सौ पचास ऐसे वीर हुए तो? दूसरा सैनिक बोला,भाई पथिक भय भीत मत करो,मैंने तो इस वीर की वीरता अपनी इन्हीं आँखों से देखी है। यदि ऐसे दस-पांच भी किसी सेना में हुए तो चाहे कितनी बड़ी सेना हों इनकी विजय निश्चित है। मैं तो उसका अश्व देख कर ही दंग रह गया।जैसा यह वीर ,वैसा ही इसका तुरंग। गुप्तचर ने मन ही मन में विचार किया,कि यह तो लगभग निश्चित हो गया है ,कि यहाँ पर बंदी रूप में हमारे कुमार भीष्म ही हैं,किन्तु यदि किसी युक्ति से उनके दर्शन कर सकूँ तो पूर्ण सिद्ध हो जाए,और उन को भी ये ज्ञात हो जाए की उन्हें खोज लिया गया है,तो नि;संदेह कुमार भीष्म भी निश्चिंत हो जाएंगे। और फिर मेरा मान सम्मान,मुझे प्राप्त होने वाले पुरस्कार,राजकीय सेवाओं में मेरे अधिकार,पद प्रतिष्ठा में वृद्धि निश्चित है जीवन परिपूर्ण हो जाएगा। एक बार नगर कोतवाल ने मेरा अपमान किया था,अब देखना कैसे मैं उस अपमान का प्रतिकार लूँगा,क्या पद होगा मेरा ?हाँ प्रधान गुप्तचर महा सिंह (स्वपन देखने लगता है,स्वपन के अंत में जोर से महा सिंह,महा सिंह का उद्घोष सा करने लगता है।) दौनो सैनिक उसे झिंझोड़ कर स्वपन से बाहर लाते हैं। सैनिक लाल सिंह पूछता है ,भाई तुम्हें क्या हुआ अकस्मात् जोर-जोर से महा सिंह ,महा सिंह भजने लगे। गुप्तचर बोला कुछ नहीं भाई एक बार हमारे गाँव को महा सिंह नाम के दस्यु ने लूट लिया था। जो विशेषतायें आपने इस बंदी और उसके तुरंग की वर्णित की हैं। कहीं यह वही दुर्दांत दस्यु तो नहीं?मेरी तो उसकी कल्पना मात्र से यह दशा हो गयी। लाल सिंह नें कहा,अरे.…भाई ये क्याकह रहे हो ?किस दस्यु में इतना साहस होगा जो हमारे राज्य में पग रखने का साहस करे,काण्ड करने की बात तो दूर है।किन्तु नि:संदेह तुमने तो संशय में डाल दिया है। इस शंका का निवारण तो होना ही चाहिए कि वास्तविकता में ये है कौन?किन्तु तुम्हें उसके दर्शन कराने के लिए तो,दुर्ग पाल से आज्ञा लेनी होगी। अरे!………भाई लाल सिंह क्यों अपने पावं पर कुल्हाड़ी मार रहे हो ?यदि तुमने दुर्ग पाल से आज्ञा ली तो,उसके महा सिंह प्रमाणित होने का सम्पूर्ण श्रेय,पुरस्कार, मान सम्मान का अधिकारी तो दुर्ग पाल हो जाएगा,हाँ....... यदि तुम निरे निखट्टू,सिर्री हो, और जीवन यूँ ही द्वार पर भाला लिए खड़े -खड़े व्यतीत करना चाहो तो ,और बात है। (कुछ रुक कर ) मुझे क्षमा करना भाई जो मैने आपके लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया। मेरा आशय इस विषय में मात्र आपका हित है। अन्यथा मुझे उस पिशाच ,नराधम दस्यु के दर्शन से किस लाभ या पुण्य की प्राप्ति होगी ?इसके विपरीत विकार ही उत्पन्न होगा। आपने मुझ पथिक को जल पान कराया,और भोजन की व्यवस्था करवा रहे हैं,ऐसे सह्रदय सज्जनों के उपकार से यदि तृण मात्र भी उऋण हो सकूँ तो मेरा अहोभाग्य,संभव है यही ईश्वर की इक्छा हो। लाल सिंह सोचने लगा बात तो ये भला मानुस ठीक ही कह रहा है,यदि यह बंदी दस्यु महा सिंह निकला, तो मुझ पर महाराज की कृपा दृष्टि निश्चित है,किन्तु इस पथिक को बंदी के दर्शन कैसे करवाये जाएँ?दुर्ग पाल को यदि बंदी के दस्यु महा सिंह के विषय में बता दिया गया तो, नि:संदेह धूर्त दुर्ग पाल स्वयं सारा श्रेय ले उड़ेगा,और मैं हाथ मलता रह जाऊँगा।किन्तु दुर्ग पाल की आज्ञा कैसे संभव है (अकस्मात )अरे हाँ .......मित्र हमारे भोजन के साथ ही बंदी का भोजन भी आता है,मैं उन्हें सैनिकों को भोजन पहले कराने की कह कर अपने साथ तुम्हारे हाथों बंदी का भोजन उठवा कर उस कोठरी तक ले के चल सकता हूँ। ये युक्ति कैसी रहेगी ?गुप्तचर ने कहा,मित्र आप तो निश्चित ही विलक्षण बुद्धि के स्वामी हैं। मेरे पूर्व में कहे कटु वचनों को क्षमा करना,युक्ति तो आपने क्या खूब सोची है?किसी को तनिक भी संशय नहीं होगा कि मैं कौन हूँ ?(इतने में बैल गाड़ियां आती दिखाई देती हैं। ) लाल सिंह -लो मित्र भोजन भी आ गया। (लाल सिंह अपनी योजना के अनुसार भोजन लाने वालों को बंदी का भोजन वहीँ छोड़ पहले सुरक्षा में रत सैनिकों को भोजन कराने की आज्ञा देता है। तत्पश्चात गुप्तचर के हाथों बंदी का भोजन उठवा कर अंदर कोठरी की तरफ चलता है। अंदर दूसरे द्वार को खटखटाता है। अंदर के सैनिक भी उसे भोजन के साथ आया देख किसी प्रकार का संदेह नहीं कर पाते। वे दोनों सलाखों में जकड़े भीष्म की कोठरी तक पहुँच जाते हैं।लाल सिंह गुप्त चर से कहता है की''मित्र मैं यहीं कोठरी के द्वार पर ही खड़ा रहूँगा,तुम बंदी के पास जाकर उसे भली -भांति पहचान लो''।भोजन का थाल (संकेत करता है )उस चबूतरे पर रख देना। गुप्त चर भोजन का थाल ले जाकर चबूतरे पर रख कर, अर्ध-विक्षिप्त से हो चुके भीष्म के निकट जा कर अत्यंत अस्फुष्ट स्वर में "कुमार भीष्म को गुप्त चर महा सिंह का प्रणाम'कहता है।भीष्म अचेत देह में हल्की सी झुर झुरी होती है। भीष्म अपनी अर्धमीलित दृष्टि गुप्तचर पर डालते हैं। गुप्तचर तुरन्त गुप्त रूप से सावधानी पूर्वक भीष्म को अपनी कलाई पर बंधा राज चिन्ह दिखलाते हैं। एक क्षीण सी मुस्कान भीष्म के होठों पर आती है।गुप्तचर तुरन्त उच्च स्वर में पुकारता है '' अरे ओ बन्दी देख तेरे लिए भोजन आ गया है"। फिर तनिक झुक कर "कुमार निश्चिंत हो कर भोजन करें,ताकि देह में शक्ति का संचार हो। आपकी इस दशा से मुक्ति अब केवल कुछ ही समय की बात है''। गुप्तचर तनिक पीछे हट कर वापिस मुड़कर लाल सिंह के पास आकर अपना मुंह लटका कर कहता है "भाई लाल सिंह क्षमा करना ये दस्यु महा सिंह नहीं है"।" क्या तुमने भली-भांति निरीक्षण किया है ?" लाल सिंह पूछता है।"मेरे प्रयास में त्रुटि का कोई स्थान नहीं है,और फिर तुमने देखा नहीं मेने उसके निकट जाकर कई बार उसका नाम भी लेकर पुकारा था। नि;संदेह हमारा यह उधोग निष्फल हुआ,दुःख है तुम्हारी कृपा का कुछ भी भार ना उतार पाया,अब आज्ञा दें इस मलिन मुख से आपके साथ क्षण भर भी रुकना नहीं चाहता "। इतना कह कर गुप्तचर लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ, मुख्य द्वार पर आकर, अपने घोड़े पर सवार हो जाता है,लाल सिंह भी शीघ्रता से डग भरता हुआ उसके पीछे -पीछेआता है। अरे.…… मित्र कृपया अपना नाम तो बताएं, लाल सिंह ने पूछा?। "महा सिंह"महा सिंह लाल सिंह को मुस्करा कर देखते हुए कहने के साथ ,घोड़े को एड़ लगा अपनी दिशा में सरपट निकल जाता है।पीछे लाल सिंह अपना सिर खुजाता'हुआ अवाक् सा उसे देखता रह जाता है। मार्ग में ही घटायें घिर आतीं हैं, वेग वती हवायो के साथ मूसलाधार वर्षा का ताण्डव प्रारम्भ हो जाता है। किन्तु जैसे जैसे उनका वेग बढ़ता जाता है,गुप्तचर महा सिंह भी अपना वेग बढ़ाता जाता है। अर्ध-रात्रि के समय महा सिंह महोबे राजमहल के द्वार पर पहुँच जाता है। चारों तरफ घनघोर अन्धकार का साम्राज्य,प्रलय समान परिस्थितियों में, मात्र अनुमान के सहारे स्वयंम को सकुशल महोबे तक की यात्रा पूर्ण करने पर धन्य अनुभव करता हुआ महा सिंह महल के मुख्य द्वार की सांकल को जोर से झकझोड़ता है। अंदर कोई प्रतिक्रिया ना होती देख पुन:और जोर लगा कर सांकल को विशाल फाटक पर मारता है। दूर कहीं से ''कौन है "है का स्वर सुनाई देता है। महा सिंह अनवरत अपने काम में लगा रहता है।"अरे भाई कौन हो ?उत्तर क्यों नहीं देते,फाटक तोड़ोगे क्या ?। मैं राजकीय गुप्तचर महा सिंह कृपया शीघ्र द्वार खोलें,महाराज के लिए अति आवश्यक विशेष संदेश लेकर उपस्थित हूँ। विशाल फाटक में संलग्न एक छोटा द्वार चरमराहट के साथ खुलता है।एक सैनिक उसमें से सिर निकाल कर महा सिंह को देख कर "क्यों भाई क्या भोर की प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे?महाराज की निद्रा में विघ्न डालने का परिणाम जानते हो ?।आप कृपया दुर्ग पाल से मेरा साक्षात्कार करवाएं,अविलम्ब,अति आवश्यक है महा सिंह ने कहा। "आप यहीं प्रतीक्षा करें,मैं आपका सन्देश दूर्ग पाल तक प्रेषित करता हूँ" इतना कह कर आरक्षी सैनिक पुन:द्वार बंद कर देता है।थोड़ी देर बाद द्वार खुलने के साथ वही सैनिक महा सिंह को अंदर बुलाकर दुर्ग पाल के पास ले कर जाता है,जो उनींदी आँखों से उसे देखता हुआ पूछता है,"ऐसा कौन सा विशेष सन्देश है,जिसके लिए भोर की प्रतीक्षा भी नहीं की जा सकती। आप मुझे दे दें,मैं भोर होते ही उन्हें पहुंचा दूंगा ? "क्षमा करें महानुभाव यह गोपनीय सन्देश महाराज के अतिरिक्त और किसी को देना मेरे लिए संभव नहीं। आप निरर्थक वार्तालाप में समय न गवाएं,अन्यथा विलम्ब के लिए आप उत्तरदायी होंगे।कृपया शीघ्रता करें"'महा सिंह ने दृढ़ता से कहा। महा सिंह की आदेशात्मक वाणी सुन कर दुर्ग पाल की उनींदे नेत्र खुल जाते हैं,देह तन जाती है,तुरन्त आसन त्याग कर खड़ा हो जाता है। कृपया अपना शुभ नाम बताएं ?दुर्ग पाल ने पूछा।"महा सिंह "गुप्तचर ने कहा।आप कृपया यहीं ठहरें, मैं महाराज के पास आपके आगमन का सन्देश ले कर जाता हूँ दुर्ग पाल बोला। मैं आपके साथ ही चलूँगा,वर्तमान परिस्थितियों में प्रत्येक क्षण मूल्यवान है,महा सिंह ने कहा। किन्तु आप अपनी दशा तो देखिये ,आपके वस्त्र तो वर्षा से भीगे होने के साथ-साथ कीचड़ आदि से सने हैं ,इस दशा में........ राज महल में.…… ?दुर्ग पाल बोला।मुझे अपनी दशा की लैश मात्र चिंता नहीं है, ना आप करें ,आप कृपया महाराज के शयन कक्ष तक मेरा मार्ग दर्शन कर, अपना कर्तव्य निर्वाह करें, महा सिंह ने उत्तर दिया। आइये …कह कर दुर्ग पाल महल दिशा में चलता है ,महा सिंह भी साथ-साथ उसका अनुसरण करता है। महल के मुख्य द्वार पर पहुँच कर वहां उपस्थित आरक्षी से तुरन्त महाराज के दर्शन की आज्ञा देता है। कुछ ही क्षण पश्चात वे दोनों महाराज के सम्मुख होते हैं। महाराज परिमल उन्हें देखते ही " दुर्ग पाल इस समय आपके उपस्थित होने का कारण " ? क्षमा करें महाराज ,ये राजकीय गुप्तचर विशेष सन्देश हेतु आपके दर्शन के लिए हठ कर रहे थे,मैंने इनसे प्रार्थना भी.…, (महा सिंह दुर्ग पाल की बात काटकर ) महाराज की जय हो,नि:संदेह महाराज, कुमार भीष्म से सम्बंधित सन्देश के लिए मैंने मैंने आपकी निद्रा में विघ्न उपस्थित किया,अपराध के लिए क्षमा प्रार्थी ……(महाराज महा सिंह की बात काटते हुए ), क्या कुमार भीष्मको खोज लिया गया ,कहाँ हैं ?कैसे हैं ?(आवेश में महाराज महा सिंह के पास आकर उसके दोनों बाहु झिंझोड़ते हैं)। जी महाराज सेवक स्वयं उनसे साक्षात्कार कर कर आ रहा है,महा सिंह दृष्टि नीचे किये उत्तर देता है।( महाराज अपने हाथों से उसके वस्त्रों के गीलेपन को अनुभव कर ) यह क्या तुम्हारे वस्त्र तो …ज्ञात होता है,तुमने मार्ग'में कहीं विश्राम नहीं किया?किन्तु ऐसी विषम ,विपरीत परिस्थितियों में, क्या तुम्हें भय नहीं लगा ? कर्तव्य पालन में भय कैसा महाराज ?महा सिंह ने कहा। हम तुम्हारी कर्म एवं कर्तव्य निष्ठां से अति प्रसन्न हैं,आसन ग्रहण करो वीर (महा सिंह संकोच करता है)संकोच न करो,हमारा आदेश है(सकुचाता महा सिंह एक तख़्त पर बैठता है)। अब हमें भीष्म के विषय में बताओ वे कैसे हैं ? महाराज परमर्दिदेव प्रश्न करते हैं। कुमार राजा हरी सिंह के घने जंगल में स्थित दुर्ग की काल कोठरी में बंदी हैं।महा सिंह उत्तर देता है। उनकी दशा कैसी है ,तुम तो उनसे मिल कर आ रहे हो ? महाराज पुनः प्रश्न करते हैं। जैसे किसी बंदी की बंदी गृह अथवा यातना गृह में होती है महाराज। महा सिंह ने प्रत्युत्तर में कहा। आपसे एक निवेदन की आज्ञा चाहूंगा महाराज ?अवश्य किन्तु वीर प्रथम मुझे अपने शुभ नाम से अवगत कराएं ?महाराज सेवक को महा सिंह के नाम से पुकारते हैं ,तथा आपसे निवेदन है, कि हमें अविलम्ब सैन्य कार्यवाही कर कुमार को बंदी गृह से मुक्त करने का प्रयोजन करना चाहिए।( महाराज परमर्दिदेव आवेशित हो दुर्ग पाल को लक्ष्य कर कहते हैं,) तुरन्त सेना पति को हमारी सेवा में प्रस्तुत होने का सन्देश दो …अविलम्ब।(जो आज्ञा कह कर दुर्ग पाल तेजी से निकल जाता है.महाराज महा सिंह पर दृष्टि पात कर )और वीर महा सिंह तुम भी अपने निवास पर जाकर विश्राम करो। हम मंत्री,सेना पति व अन्य सभासदों से मिल कर इस विषय पर रणनीतिगत मंत्रणा करेंगे। आज्ञा हो तो सेवा में एक सुझाव प्रस्तुत करना चाहूंगा ?महा सिंह ने उठते हुए कहा। अवश्य वीर ,किन्तु (सोचते हुए ) प्रथम तुम अपने निवास पर जाओ एवं पुनः व्यवस्थित होकर आओ, तब तक मंत्री,व् सेनापति भी यहीं उपस्थित होंगे।जो आज्ञा,(महा सिंह आदर सहित झुकते हुए,पीछे चलते हुए घूम कर निकल जाता है। महाराज विचार मग्न मुद्रा में कक्ष'में टहलते हैं। कभी द्वार तक आते हैं,कभी आसन पर बैठते हैं, बार-बार ऐसी क्रियाएँ दोहराते हैं, जब तक सेनापति व अन्य नहीं आ जाते।महाराज सेनापति आदि को भीष्म से सम्बंधित समाचार से अवगत कराते हैं,इतने में महा सिंह भी पहुँचता है। महाराज महा सिंह को देख कर )
आओ वीर महा सिंह (सेनापति व अन्य सभासदों की ओर देख कर )यही हमारी गुप्त चर सेवा का वह वीर है,(महा सिंह सबका अभिवादन करता है। )महा सिंह अब अपने भीष्म प्रकरण का समस्त विवरण प्रस्तुत करो। (महा सिंह पूरा विवरण सुनाता है,विवरण सुनने के पश्चात,सब उसे प्रशंसनीय दृष्टि से देखते हैं,महा सिंह संकोच वश दृष्टि झुका लेता है। )महाराज परमर्दिदेव पुनः कहते हैं ,महा सिंह तुमने तो अद्भुत प्रशंसनीय कार्य किया है,निःसंदेह तुम प्रशंसा के पात्र हो,इसमें संकोच कैसा ?मेरे स्थान पर कोई अन्य सेवक होता तो निःसंदेह वह भी ऐसा ही करता। अंतर केवल इतना है की ये सौभाग्य मुझे मिला, महा सिंह ने कहा। महाराज उसके पास जाकर उसे छाती से लगाकर कहते हैं, तुम्हारे इस साधुवाद के लिए शब्द नहीं हैं। तुम्हारे सरीखे कर्तव्य परायण,देश भक्त सैनिक ही हमारा गौरव हैं,हमारा बल हैं। तुम इस सम्बन्ध में कुछ सुझाव देना चाह रहे थे ?(महा सिंह संकोची भाव से मंत्री परिषद पर दृष्टि पाद करता है )निःसंकोच हो कर अपनी बात कहो,महाराज उसका उत्साह वर्धन करते हैं। महाराज मैं अकिंचन तो केवल यह कहना चाह रहा था ,कि वातावरण में अकस्मात हुए इस परिवर्तन को हम अपने पक्ष में मान कर चलें। शत्रु पक्ष निःसंदेह ऐसे में दुर्ग की रक्षा के प्रति किञ्चित असावधान होगा,उसे नगर से कुमुक व अन्य सहायता में भी, ऐसे में विघ्न निश्चित है। हमें अत्यधिक सैन्य शक्ति की आवश्यकता भी नहीं है। हमारे एक हज़ार महावीर सरदार, उनकी पूरी सेना को यम पुरी पहुँचाने के लिए पर्याप्त हैं। वहाँ की भौगोलिक परिस्थिति भी इसमें हमारी सहायता करेगी।वह दुर्ग तीन दिशाओं में ऊंचीं -ऊंचीं पहाड़ियों से घिरा है। हम यदि वेग से आक्रमण करेंगे तो भी इस आंधी-वर्षा में उन्हें हमारी पद-चाप सुनाई नहीं देगी,और हम उनके सिर पर पहुँच कर , बड़ी सरलता से उन्हें मृत्यु के घाट उतार कर कुमार को स्वतन्त्र करा लेंगे। अब रही राजा हरी सिंह के मान मर्दन की बात तो उन्हीं सैनिकों में से किसी एक के द्वारा सन्देश भिजवा कर, अपनी रणनीति बना कर वहीँ प्रतीक्षा करें। उनकी सेना को चारों तरफ से घेर कर उन्हें भ्रमित कर पराजित कर सकते हैं।महाराज परमर्दिदेव पूछते हैं, कि क्या तुमने वहां की भौगोलिक स्थिति का भली-भांति निरीक्षण कर लिया है ? जी महाराज !अन्ततः यह यह भी मेरे कार्य क्षेत्र आता है। मेरा धर्म है कि, मेरी सूचनाओं द्वारा हमारे सैन्य बल को इस अभियान में किसी प्रकार की क्षति ना पहुंचे।क्षमा चाहूंगा महाराज मेरी दृष्टि में हमें तुरंत प्रस्थान कर देना चाहिए। जब तक दल संगठित हो,मैं वहां की पूर्ण भौगोलिक स्थिति का वर्णन करने की आज्ञा चाहूंगा ? (महाराज उसे प्रशंसित भाव से देखते हुए )अवश्य। महाराज दल के संगठन का आदेश देकर सेनापति से शीघ्रातिशीघ्र प्रस्थान के लिए कहते हैं व स्वयं महा सिंह से वहां की भौगोलिक स्थिति समझते हैं।
रात्रि के अन्तिम पहर से पूर्व ही पूरा दल महा सिंह के मार्ग दर्शन में निकल पड़ता है।वर्षा रुक जाती है ,किन्तु वायु का वेग यथावत रहता है, घटाघोप बादल और घने हो जाते हैं । महाराज परमर्दिदेव,सेनापति, एक हज़ार महावीर सरदार व अन्य अनुचरों के साथ पहला पड़ाव पचास कोस पर स्थित एक विशाल बाग में डालते है। तम्बू,छोलदारियां तन जाती हैं।थोड़ा सुस्ताने व भोजन करने के पश्चात,कभी मूसलाधार कभी रिमझिम कभी नन्हीं नन्हीं फुहारों के बीच सब कुछ समेट यात्रा पुनः आरम्भ हो जाती है। संध्या होते-होते दल शत्रु राज्य में प्रवेश कर जाता है।अर्ध-रात्रि के समय अपने लक्ष्य से पांच कोस की दुरी पर घने जंगल में जहां हाथ को हाथ नहीं सुझाई देता है,अंतिम शिविर स्थापित किया जाता है। आवश्यकता अनुसार कुछ तम्बू -छोलदारियों तान कर उनमें युद्धकालीन व्यवस्था की जाती है। पेड़ों के साये में वर्षा से बचा कर मशालें जला दी जाती हैं। अंतिम व्यूह रचना की जाती है। पूरे दल को पांच भागों में विभक्त कर दिया जाता है।हरावल टुकड़ी में महा सिंह व २०० विशिष्ट महावीरों के साथ महाराज स्वयं तत्पर होते हैं।अन्य ८०० महावीरों को सेनापति व अन्य सरदारों की अगुआई में , ४ भागों में बाँट कर एक को दांयीं दिशा , एक को बांयीं दिशा से आक्रमण का दायित्व सौंपा जाता है। अन्य दो टुकड़ियों को शत्रु सेना को पीछे से घेर कर वार करने का कार्य दिया जाता है। महाराज के दल को छोड़ कर अन्य दल अपने संभावित ठिकानों की और अग्रसर होते हैं। उनके अपने स्थानों पर पहुँच जाने का अनुमान लगाने के पश्चात महाराज अपने दल को लेकर दुर्ग की दिशा में बढ़ते हैं। दुर्ग के समीप पहुँच कर महाराज ''आक्रमण ''का स्वर घोष करते हें।हर-हर महादेव ,जय भवानी,जय माँ शारदे के जय घोषों से दुर्ग को गुंजित करती पूरी टुकड़ी वेग से दुर्ग पर धावा बोल देती है। दुर्ग के विशाल लौह द्वार को पलीता लगा कर धराशायी कर दिया जाता है। लौह द्वार के ध्वस्त होने का कर्ण भेदी नाद सुन कर गहरी नींद में सुप्त दुर्ग पाल व अन्य दुर्ग रक्षक सैनिक जब तक कुछ समझ पाते महाराज का दल उनके सिर पर पहुँच उनका संहार प्रारम्भ कर देता है। अकस्मात् हुए इस आक्रमण से दुर्ग रक्षकों में हड़बड़ी मच जाती है।महाराज की टुकड़ी जिनके हाथों में अस्त्र-शस्त्र देखती है ,उन्हें अविलम्ब मृत्यु के घाट उतार दिया जाता है। निहत्थे,भयभीत ,प्राणो की भीख माँगनेँ वालों को पलायन का पूरा अवसर दिया जाता है। महा सिंह महाराज से कहता है ''महाराज दुर्ग पर हमारा पूर्ण नियंत्रण हो चुका है,क्यों ना अब हम कुमार भीष्म को बंधनमुक्त करें।'' हमें तुरंत उस स्थान पर ले चलो ''महाराज ने कहा। ''आइये महाराज''महा सिंह तुरंत अपना अश्व बढ़ा देता है। दोनों एक संकरे गलियारे से होकर एक अन्य लौह द्वार के समक्ष पहुंचते हैं। ''महाराज इस द्वार को हमें बल प्रयोग द्वारा उठाना होगा,जिससे यह अपनी चूलों से निकल सके,आप सेवक को प्रयास करने दें'',महा सिंह ने पीठ के पीछे हाथ ले जाकर ,द्वार की उभरी हुई सलाखों को पकड़ कर उठाने का प्रयास करता है ,किन्तु द्वार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। महाराज उसके पास आकर स्वयं भी उसके प्रयास में सहभागी होने को तत्पर होते हैं। महा सिंह कहता है,कि महाराज आप रहने दें,चूलें निकलने के पश्चात निस्संदेह यह वेग से धराशायी होगा, आप कृपया सुरक्षित दूरी पर रहें।आप की सुरक्षा भी सेवक का दायित्व है।''युद्ध क्षेत्र में राजा और सैनिक में अंतर नहीं होना चाहिए,बल ,वीरता किसी व्यक्ति विशेष की धरोहर नहीं होती ,आओ एक साथ प्रयास करें।'' महाराज ने कहा। '' किन्तु महाराज!''महा सिंह केवल इतना ही कह पाया तब तक महाराज के दोनों हाथ विशाल लोह द्वार की चूल की आधार सलाखा को थाम चुके थे। दोनों नें ''जय माँ भवानी ''का उद्घोष कर जोर लगाया,चूल अपने स्थान से ऊपर उठती चली आई। ऊपर आने के पश्चात दोनों ने उसे तल पर टिका दिया। अब ऊपर की धुरी से द्वार को अलग करना शेष रह गया। महा सिंह ने पीछे हट कर वेग पूर्वक अपने दोनों हाथों से द्वार को धक्का दिया। द्वार धुरी से अलग होकर दूसरी तरफ से भी टूट कर उनकी तरफ गिरने लगा,महा सिंह ने तुरंत उसे अपने दोनों हाथों पर ले कर महाराज को तुरंत उसके नीचे से निकलने को कहा। महाराज ने उसके नीचे से निकल कर ,महा सिंह के भार से कांपते हाथों के साथ अपने हाथ भी लगा देते हैं ,शनै:शनै:पीछे हटते हुए दोनों उसे ज़मीन पर गिरा देते हैं । ''मुख्य द्वार तो धराशायी हो गया महाराज,अब केवल सामने का काष्ठ का द्वार ही अंतिम है।'' महा सिंह अपनी दोनों तलवारों को हाथ में लेकर द्वार पर प्रहार करने लगता है। महाराज भी वैसा ही करते हैं। थोड़ी ही देर में द्वार इतना कट जाता है कि एक व्यक्ति उसमे सरलता से प्रवेश पा सकता था। "महाराज वे रहे कुमार भीष्म,"महा सिंह एक अँधेरे कोने की तरफ संकेत करता है।"आप उन्हें बंधन मुक्त करें,तब तक में इस द्वार को आप दोनों के निष्कासन योग्य काट देता हूँ।'' महाराज तुरंत ''भीष्म '' कहते हुए अपनी दोनों भुजाएं फैलाये भीष्म की दिशा में बढ़ते हैं।भीष्म लोहे के कुंदों में जकड़े अपने सिर को थोड़ा सा उठाकर अर्ध मिलित दृष्टि से आवाज़ की दिशा में देखते हैं। महाराज को देखते ही मानो भीष्म की देह में प्राणों का संचार हो जाता है।"दादा "कहते ही भीष्म के नेत्र डबडबा जाते हैं। महाराज भीष्म को अपनी बाहों में भर लेते हैं। भीष्म की आँखों से जल धारा बहनेलगती है। महाराज भीष्म के नेत्र पोंछते हुए कहते हैं ''यह क्या ?महावीर होकर रोते हो,अब तो हम आ गए हैं। अब तो शत्रु के रोने का समय है'' कह कर महाराज भीष्म की बेड़ियां काटने लगते हैं। महा सिंह भी शीघ्रता से अपना काम समाप्त कर महाराज की सहायता करता है। भीष्म के बंधन मुक्त होते ही महा सिंह घुड़साल से भीष्म का अश्व लाता है। महाराज सहारा देकर भीष्म को अश्व पर आरूढ़ करते हैं। आगे आगे महाराज और महा सिंह ,अपने पीछे भीष्म को लेकर अपने दल से आ मिलते है ,उन्हें देखते ही टुकड़ी हर्ष विभोर हो कर महाराज और भीष्म की जय जयकार करने लगती है।पूर्व में आकाश पर धीरे-धीरे प्रकाश का आभास होता , पौ फटने लगती है।
महाराज परमर्दिदेव भीष्म को युद्ध शिविर में जाने का परामर्श देते हैं,किन्तु भीष्म सविनय शत्रु से युद्ध करने की अपनी इक्षा जता कर,युद्ध क्षेत्र में ही रहने की आज्ञा मांगते हैं।एक सैनिक शत्रु सेना आगमन की सूचना देता है,तथा यह भी बताता है ,कि अन्य टुकड़ियों को भी सूचित कर दिया गया है। महाराज अपनी टुकड़ी को सचेत करने के साथ -साथ आवश्यक निर्देश देते हैं। वातावरण में कोलाहल सुनते ही महाराज अपनी तलवार उठा कर आक्रमण का आदेश देते हैं। महाराज के साथ पूरी टुकड़ी तेजी से उस दिशा में दौड़ पड़ती है।
महाराज के नेतृत्व में टुकड़ी पूरे उत्साह से शत्रु सेना पर टूट पड़ती है। भयंकर मार-काट मचाती शत्रु सेना में घुसती चली जाती है। शत्रु सेना दुर्ग पर अधिकार हेतु दायें बाएं फैल कर आक्रमण करने के प्रयास में दोनों ही दिशाओं में महोबे की अन्य दोनों टुकड़ियों के सामने पड़ जातीं हैं। तीन तरफ से होते आक्रमण से हीरा सिंह की सेना भ्रमित हो जाती है,उसके दलपति नहीं समझ पाते कि किस दिशा में युद्ध करें। भीष्म की दृष्टि हीरा सिंह को खोज रही होती है। हीरा सिंह अपने हाथी पर बैठा-बैठाअपनी सेना का संहार होते देखताहै,आगे बढ़कर अपनी सेना को प्रोत्साहित करता है।हीरा सिंह की सेना उत्साहित होकर बार-बार महोबे की सेना पर आक्रमण करती है ,किन्तु महोबे के वीरों के सामने स्वयं को घिरा देख कुछ तो प्राण गंवाते हैं,कुछ समर्पण कर अपनी प्राण रक्षा करते हैं कुछ अवसर देख पीठ दिखा, पलायन कर जाते हैं। हीरा सिंह यह देख,क्रोधित हो कर अपने महावत को हाथी बढ़ा महाराज परमर्दिदेव के सामने ले जाने का आदेश देता है। सामने पहुँचते ही हीरा सिंह महाराज परमर्दिदेव से कहता है कि ,अब समझ आया की वह कौन है?जिसनेमुझसे टकराने का साहस किया।मेरे राज्य में घुस कर मेरे बंदी को छुड़ाने का दुस्साहस किया। अच्छा ही हुआ, बैठे बिठाए मुझे महोबा और चंदेरी दोनों राज्यों का स्वामित्व मिल जाएगा,मैं बल में तो सर्वोपरि हूँ,अब धन में भी हो जाऊँगा। तुझे तेरे इस दुस्साहस का दण्ड अवश्य मिलेगा,अब तुम दोनों को बंदी बनाकर,तुम दोनों द्वारा की गयी क्षति की पूर्ती के साथ -साथ तुम्हें अपना दास बनाऊंगा। महाराज परमर्दिदेव ने हॅंसकर कहा, लगता है तुझे अपने सम्बन्ध में मिथ्या भरम हो गया गया है। तुझ जैसे अमर्यादित ,संस्कार विहीन व चरित्र हीन से इस आर्यावृत में कौन सम्बद्ध रखना चाहता है ? किन्तु आज आर्यावृत तुझ जैसे राजा से मुक्ति पा जाएगा।तूने अकारण ही मेरे कनिष्ट भ्राता को बंदी बनाकर राजाओं में प्रचलित साधारण नियमों की अवहेलना करने के साथ -साथ, अपने कुत्सित आचरण का भी प्रदर्शन किया है। अब मिथ्या सम्भासण बंद कर और युद्ध कर।
महराज परमर्दिदेव के इतना कहते ही हीरा सिंह अपने सैनिकों को आक्रमण का आदेश देता है,किन्तु महाराज की टुकड़ी के सैनिक उन सैनिकों को बड़ी सरलता से यमलोक पहुंचा देते हैं। यह देख महाराज परमर्दिदेव कहते हैं। साहस है तो मुझसे युद्ध कर हीरा सिंह, क्यों व्यर्थ रक्त पात करवा रहा है। यह सुनते ही हीरा सिंह एक भारी सांग उठा कर महाराज को लक्ष्य बना कर फेंकता है,महाराज उस सांग को वेग पूर्वक ढाल अड़ाकर टुकड़े -टुकड़े कर देते हैं। महाराज सिरोही घुमाकर उसके हौदे के कलश तोड़ देते हैं। हीरा सिंह भाले का वार महाराज पर करता है,महाराज अपने घोड़े को तुरन्त बाएं हटाकर वार निष्प्रभावी कर देते हैं। महाराज सांग चलाकर उसके हौदे को तहस नहस कर देते हैं। अपने घोड़े की अगली दोनों टाँगे हीरा सिंह के हाथी के मस्तक पर टिका कर उसके महावत को गिरा देते हैं। महावत युद्ध क्षेत्र से भाग जाता है। हीरा सिंह तुरन्त हाथी से कूद कर एक सैनिक का घोडा प्राप्त कर महाराज परमर्दिदेव के समक्ष आ कर अपनी खड्ग का वार महाराज पर करता है।महाराज उसके वार को अपनी ढाल पर रोक कर अपनी खड्ग का भरपूर वार हीरा सिंह करते हैं ,हीरा सिंह अपनी ढाल अड़ाता है। हीरा सिंह की ढाल कट जाने के साथ साथ उसकी हथेली में घाव आ जाता है।हीरा सिंह खीजकर अपनी तलवार का भरपूर वार महाराज पर करता है,महाराज भी अपनी तलवार के भरपूर वार से उसकी तलवार काट देते हैं,तलवार की केवल मूठ हाथ में रह जाती है। महाराज अपनी ढाल के वार के जोरदार धक्के से हीरा सिंह को घोड़े से गिरा देते हैं। भीष्म तुरन्त अपने घोड़े से कूद कर उसे दबोच लेते हैं। हीरा सिंह भीष्म की पकड़ से स्वयं को छुड़ाने का प्रयास करता है,किन्तु भीष्म अपने मुष्ठि एवं घूंसों के प्रहार से उसे शांत कर देते हैं। हीरा सिंह के बंदी बनते ही उसकी सेना का मनोबल टूट जाता है ,सेना आत्मसमपर्ण कर देती है। भीष्म हीरा सिंह को उसी प्रकार से जकड़ कर, दुर्ग की उसी काल कोठरी में ले जाकर रखते हैं।
महाराज परिमल हीरा पुर के राजभवन में दरबार लगाते हैं। हीरा सिंह को वहां लाया जाता है।उस पर कुमार भीष्म को अनैतिक रूप से बंदी बनाने के साथ -साथ दूसरे राज्यों से निर्वासित दुष्ट प्रवृति के लोगों को अपने यहाँ आश्रय व संसाधन देकर अन्य राज्यों में चोरी ,डाके ,उपद्रव व उत्पात कराकर अपने राज्य कोष की वृद्धि, करना यह दो आरोप लगाये जाते हैं।राजा हीरा सिंह अपने ऊपर लगाये आरोपों को सुनकर लज्जावश अपनी दृष्टि झुका लेता है।
महाराज परिमल कहते हैं,राजा हीरा सिंह आपने ये दो आरोप सुने जो स्वयं सिद्ध हैं। प्रथम आरोप में आपने मेरे कनिष्ठ भ्राता भीष्म को बंदी बनाकर,राजा होते हुए अपनी निकृष्ट प्रवृति से राजा की गरिमा को कलंकित किया है।आप ने यदि राज्योचित वीरोचित आचरण किया होता तो इतनी जन हानि न होती।यह कोई युद्ध नहीं था,यह तो राजाओं, क्षत्रियों की प्रिय मनोरंजक क्रीड़ा आखेट थी, जिसे आपने निरर्थक युद्ध का रूप दे दिया।आपने जो किया उसका परिणाम आपके सम्मुख है। आप अपनी ही राज्यसभा में बंदी रूप में मेरे सम्मुख उपस्थित हैं।आप वीर हैं,इसमें कोई सन्देह किसी को नहीं है,किन्तु वीरता का ये कैसा प्रदर्शन?यहाँ शत्रु कौन है?इस देव धरा आर्यावृत के समस्त भूप अपनी योग्यता अनुसार, अपने-अपने राज्यों का निर्वहन करने के साथ -साथ, अन्य राजाओं के साथ मैत्री एवं सौहाद पूर्ण संबन्ध रखें,यह इस काल खंड की अनिवार्य आवश्यकता है।हमारा भी भरसक यही प्रयास है कि हमारा व्यवहार व सम्बन्ध सबसे मधुर व गरिमा पूर्ण रहें। हम इसमें सफल भी रहे हैं,किन्तु आपके ऐसे आचरण से हमारे इस अभियान को निश्चित ही ठेस लगी है। हम यह विचार करने पर विवश हुए हैं,कि संभव है आर्यावृत के कुछ अन्य भूप भी बलाभिमान और अहंकार वश आप जैसा ही आचरण करें। यह सर्व विदित तथ्य है, कि वर्षों पूर्व हमने बलाभिमान में चूर उन समस्त राजाओं का मान मर्दन किया था,किन्तु उनके राज्य को अपने राज्य में समाहित नहीं किया। उनका राज्य उन्हें ही सौंपकर उनसे मैत्री सम्बन्ध स्थापित किये,तथा कभी भी उनकी स्वतंत्रता तथा संप्रभुता का उल्लंघन नहीं किया। सदैव उनसे समानता तथा सहायता का व्यवहार किया, जिसका हम आज तक निर्वाह कर रहे हैं,तथा जीवन पर्यन्त करेंगे।हम आपसे भी ऐसे ही व्यवहार की आशा करते हैं,(हीरा सिंह चौंक कर सिर उठाता है )किन्तु इसके लिए हमें आप पर विश्वास करना होगा,इसका क्या प्रमाण होगा कि भविष्य में आप ऐसा नहीं करेंगे?राजा हीरा सिंह अवाक् हो महाराज परिमल देखता रह जाता है। वह विश्वास नहीं कर पाता, कि मेरे आचरण के प्रतिकार में ऐसा आचरण। वह कहता है,महाराज नि:संदेह मेरा ये व्यवहार प्रत्येक दृष्टिकोण से निंदनीय अपराध है।मैंने राज्य मद में सत्ता तथा बल का अपने हितार्थ दुरूपयोग कर अपनी प्रजा तथा अन्य राज्यों की प्रजा को भी कष्ट दिया। अपने इन कृत्यों के लिए मुझे दुख तथा ग्लानि का अनुभव हो रहा है।में बंदी रूप में आपके समक्ष हूँ,अपने अपराध स्वीकार करता हूँ,आप जो दंड निर्धारित करेंगे मुझे स्वीकार हैं,चाहे वह मृत्यु दंड ही क्यों ना हो।राजा हीरा सिंह इतना कह कर सिर झुका लेता है। महाराज परिमल कहते हैं,राजा हीरा सिंह जी आपको अपने कृत्यों पर ग्लानि का अनुभव हो रहा है,यह हमारे लिए संतोष का विषय है, किन्तु हम आपकी वीरता का भी उचित परिप्रेक्ष्य में उपयोग करना चाहते हैं।वीरों को अपनी गरिमा के अनुरूप प्रदर्शन करना चाहिए धीरता,वीरता,दया,करुणा,न्याय व देशप्रेम जैसे सर्वोपरि गुण ही तो वीरों के आभूषण हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने क्षुद्र स्वार्थों के कारण आपस में ही युद्ध रत रहते हैं। हमारा प्रयास है कि हम अपनी मातृभूमि की अखण्डता स्वतन्त्रता व विकास के लिए कार्य करें। हम इसमें आपका सहयोग चाहेंगे। हम आपको आर्यावृत में बनी हुई आपकी छवि सुधारने का परामर्श देंगे। इस दिशा में आपका पहला प्रयास यह हो कि आप अपने द्वारा संरक्षित दूसरे राज्यों,प्रदेशों या प्रांतों में वांछित अपराधियों को, उनके द्वारा पीड़ित राज्यों को सौंप दें, ताकि वहां उन्हें उनके द्वारा किये अपराधों के अनुरूप दण्ड मिले। कहिये आपको स्वीकार है? (राजा हीरा सिंह एक बार सिर उठा कर महाराज परिमल पर दृष्टि डाल पुन: सिर झुका कर स्वीकारोक्ति भाव से "मुझे स्वीकार है "कहता है)।आप भविष्य में इस प्रकार के कर्मों से विमुख रहें,इसके प्रमाण स्वरुप अपनी पुत्री का विवाह हमारे कनिष्ट भ्राता,(मुस्कुराकर )अपने पूर्व बंदी भीष्म से कर उसका डोला सौंप दे। क्या आपको यह भी स्वीकार है। (राजा हीरा सिंह अचकचा कर महाराज के मुख पर दृष्टि डालता है,किन्तु उनकी गंभीर मुद्रा देख स्वीकार भाव से सिर हिलाता है।) राज्य सभा में कुछ पल के लिए सन्नाटा छा जाता है। आपके द्वारा व्यर्थ में थोपे गए युद्ध में हुई हानि के फल स्वरुप आपको अपनी आय का छठा भाग प्रतिवर्ष कर के रूप में महोबे के राजकोष में देना होगा(राजा हीरा सिंह के झुके हुए मुख पर एक क्षण के लिए क्रोध का भाव आता है,किन्तु अपनी परिस्थिति देख मान लेता है)आइये कृपया अपना आसन ग्रहण करें,हम स्वयं आपको आपके आसन पर आसीन करना चाहेंगे।हमारे प्रस्थान पर्यन्त हमारे अंगरक्षक आपकी सेवा में रहेंगे ताकि हम निश्चिंत रहें। महाराज परिमल के संकेत पाते ही राजा हीरा सिंह के बन्धन काट दिए जाते हैं। महाराज परिमल राजा हीरा सिंह से गले मिलकर राजा हीरा सिंह को राजसिंहासन पर आसीन कर उसके सिर पर राज मुकुट सुशोभित करते हैं। महाराज परिमल राजा हीरा सिंह से कहते हैं,कि राजा हीरा सिंह जी आपसे नम्र निवेदन है की शीघ्र ही विवाह सम्पन्न कराएं ताकि हम भी अपने राज्य को प्रस्थान कर वहां की व्यवस्था देखें । राजा हीरा सिंह अपने अधिकारियों को सम्बंधित आदेश देकर स्वयं रनिवास में आवश्यक वैवाहिक तैयारियों के लिए चला जाता है। महाराज परिमल भी अपने सहयोगियों के साथ विश्राम हेतु दुर्ग में लौट आते हैं। एक हरकारे को आवश्यक सन्देश देकर महोबे भेज दिया जाता है।
महाराज परिमल राजा हीरा सिंह की पुत्री राज कुमारी नंदिनी के डोले के साथ एक हज़ार हाथी पाँच हज़ार घोड़े दास-दासियाँ हीरे व अन्य बहुमूल्य रत्नों व कर के रूप में राज्य की आय का छठा भाग ले कर महोबे लौटते आते हैं। महोबे लौटने पर नवदम्पति का परम्परा अनुसार राज्योचित स्वागत किया जाता है। पूरे महोबे में विजय व विवाह के उपलक्ष्य में उल्लास पूर्वक उत्सव मनाया जाता है। भीष्म कुछ दिन महोबे में बिताकर महाराज परिमल व महारानी मल्हना से आशीर्वाद लेकर चंदेरी लौट जाते हैं। धीरे-धीरे सम्पूर्ण आर्यावृत में राजा हीरा सिंह जैसे कुख्यात राजा को जीत कर उसे वश में करने से महाराज परिमल की वीरता का पुन: यशगान होने लगता है।आर्यावृत के अन्य राजा महाराज परिमल को बहुमूल्य भेंटे भेज कर सम्मानित करते हैं।
कन्नौज में राठौर वंश भूषण महाराज विजय पाल की मृत्यु उपरान्त उनके ज्येष्ठ पुत्र जयचंद सिंहासन पर आसीन होते हैं। महाराज जयचंद के हाथ में विशाल राज्य की बाग़ डोर आते ही उनके आधीन राजा व सामंत आदि,अवसर का लाभ उठाते हुए स्वयं को स्वतंत्र घोषित करना प्रारम्भ कर देते हैं। निर्धारित कर देना बंद कर देते हैं। राज्य के जो अधिकारी कर एकत्र करने जाते हैं ,उन्हें भी युद्धोन्मुख होकर खाली हाथ लौटने पर विवश कर देते हैं। कुछ राजा व सामंत अपने संघ बना लेते हैं,जिससे राजा जयचंद से युद्ध के समय परस्पर सहयोग कर सकें।कन्नौज के राज्य कोष में शने:शने धन का अभाव होने लगता है।
महाराज जयचन्द के सम्मुख र्नित्य योजनायों में कटौती के प्रस्ताव प्रस्तुत किये जाने लगे,जनसाधारण व् अन्य लोककल्याण की योजनायों के लिए राज्यकोष से धन का आबंटन अवरुद्ध हो गया । कामरूप प्रखंड में जलप्लावन व कई स्थानों में दुर्भिक्ष के कारण, नागरिकों के पुनर्वास से सम्बंधित योजनायों के अभाव में स्थिति और विकराल हो गयी।स्थिति ये हो गयी की, महाराज जयचन्द की नाक के नीचे कन्नौज के ही कर्मचारी स्थिति से लाभ उठाकर भ्र्ष्टाचार में संलिप्त हो गए फलस्वरूप स्थानीय करों में भी उल्लेखनीय कमी आने से कन्नौज व समीपवर्ती स्थानों में भी स्थिति अराजक होने लगी।घाटों,मंदिरों,अन्य धार्मिक स्थानों से होने वाली आय व स्थानीय निकायों में भी भ्र्ष्टाचार व्याप्त हो गया। सैनिकों,पदाधिकारियों व अन्य कर्मचारियों के वेतन आदि में भी असुविधा होने लगी तो लोककल्याण अधिकारी ,धर्माधिकारी व सेनापति आदि ने महाराज जयचन्द को वास्तुस्थिति से अवगत कराया। महाराज जयचन्द तुरन्त एक उच्चस्तरीय बैठक बुलबाते हैं,जिसमें समस्त उच्च पदाधिकारी ,विश्वसनीय सुभेक्षु राजाओं ,सामन्तों ,सरदारों,मठाधीशों, समाज शास्त्रियों,विचारकों व अन्य गणमान्य व्यक्तियों से परामर्श करते हैं। बैठक में अधिकांश राजा सामन्त व सरदारों की अनुपस्थिति सबसे अधिक चिंतित करती है। अब कोई संदेह नहीं रह जाता है, कि अधिकांश राजा,सामन्त व सरदार विद्रोही हो चुके हैं। स्थितियां अत्यन्त गम्भीर हो गईं हैं, महाराज जयचन्द क्रोधावेश में सर्व प्रथम विद्रोह को कुचलने की कहते हैं.किन्तु महामंत्री ,अमात्य सेनापति आदि महाराज के इस विचार का अनुमोदन नहीं करते। महामंत्री कहते हैं कि , ''महाराज इससे तो स्थिति और भयावह हो सकती है। आप अभी युवा हैं,राजनीति युद्ध नीति में आपका अनुभव आर्यावृत में संदेह की दृष्टि से देखा जायेगा। आप यदि विद्रोह शमन के लिए सेना सहित प्रस्थान करेंगे तो संभव है शत्रु समूह राजधानी पर आक्रमण न कर दे। हमें उनकी स्थिति ,बल व उनकी भावी रणनीति का कुछ भी अनुमान नहीं है। राजकोष में धन का अभाव,अराजकता,भ्र्ष्टाचार,हमें इस स्थिति में किसी विश्वस्त,बलशाली राजा का सहयोग अपेक्षित है''। राजा जयचन्द महामंत्री से पूछते हैं ,कि हमारी ऐसी स्थिति में ऐसा कौन राजा है,जो हमारी स्थिति को जानते हुए ,परिस्थिति का लाभ न उठाते हुए भी उलटे हमारी सहायता करे ? ''ऐसा तो एक ही नृप मेरी दृष्टि में है '' महामंत्री कहते हैं ''जो धन बल राजनीति ,कूटनीति व युद्ध नीति में तो सबसे अग्रणी हैं ही,कन्नौज के प्रति उनके समस्त पूर्वजों का सम्मान भाव रहा है। मुझे पूर्ण आशा ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्वास है, की वे सूचना प्राप्त होते ही तुरंत हमारी सहायता का सम्पूर्ण निष्ठां से निर्वाह करेंगे। उन्हें मात्र आपका सन्देश मिलने की देर है ''। /